पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/६३०

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कर । संस्कृत का खानपान' ही चाहे आ गया हो ! संस्कृत में खानपानम् चलता रहा है। पुराण-प्रयोग कोशों में उद्धृत हैं। ‘क’ को ‘के रूप में ही नहीं, कै-रूप में भी प्रयुक्त करते हैं: आजु मोहनकै आँगन सखि है, बड़ि बुड़ि बूंद गहागहि बरिसै ! *बिन्दु संस्कृत में पुल्लिङ्ग है; पर उस का तद्भव रूप द हिन्दी में स्त्रीलिङ्ग । मैथिली में भी ‘बड़ि बड़ि बूंद' सामने है ।। यहाँ अधिक और कुछ न कहा जाए गर । मैथिली के काव्य-ग्रन्थ छुपे हुए हैं। उन्हें पढ़िए और आनन्द लीजिए। | मैथिली तक ही हिन्दी-परिवार है, आगे नहीं ।” बँगली भाषा हिन्दीपरिवार में नहीं; ‘हिन्दी की बोली नहीं, हिन्द की बोली है ही। बैंगला में वह 'क' नहीं है, जो ‘हिन्दी की एक भाषा-संघ' बनाने का सूत्र हैं। बैंगला के सुप्रसिद्ध कवि कुत्तिवास का 'रामायण' महाकाव्य ‘मानस' से बहुत पहले की रचना है। कृत्तिवास की बँगला भाषा पर उस अन्तरप्रान्तीय अपभ्रंश' का प्रभाव स्पष्ट है, जिस का प्रभाव जायसी, तुलसी, सूर तथा चन्द आदि विभिन्न हिन्दी-कवियों पर है। इसी लिए कुन्निवास की 'रामायण'-भाषा में ऐसे वाक्य देखे जाते हैं ‘मथा चड़ावइ गाइके चुडुआ मथा-‘माथा' । “गाइक'--गाय का । 'चढाव’-चढ़ावहि-चढ़ावइचढ़ावै । ये ऐसे प्रयोग उसी साहित्यिक अपभ्रंश' के प्रभाव के कारण । यह प्रभाब हिन्दी के पुराने सभी छवियों पर तो दिखाई देता ही है, गुजराती-मराठी आदि हिन्द की सभी बोली-भाषाओं पर भी है, जो पुराने कार्यों में सुरक्षित हैं। आगे चल कर प्रादेशिक भाषाओं का निखरा हुआ व्यक्तित्व सामने आया और तब उस पुरानी भाषा ( साहित्यिक 'अपभ्रंश' ) का प्रभाव उड़ गया। ऊपर हम ने विद्यापति के नन्दक नन्दन' पद्य उद्धृत कर के बतलाया है। कि मैथिली में कितना मिठास है। उत्तर प्रदेश के नरहरि कवि के ब्रजभाषापदों से मिलान कीजिए---- नरहरि निरखि भरत जोबत बन, प्रगटित प्रेम बृथा बिन जीव ।। अधसकि परति विकल' व्रजसुन्दरि, दुहुँ भरि नयन स्रवति भरि भादव !