पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/६५२

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( ६०७ ) ह्रस्व, दीर्घ आदि हिन्दी के भाषाविज्ञानियों ने हुस्व-दीर्घ आदि स्वरों को भी कैसा गोरखधन्धा बना दिया है, देखने की चीज है। भोजपुरी’ का विश्लेषण करते समय प्रसंग से ‘मगही' पर विचार चल रहा है- मगही में भी संज्ञा के तीन रूप होते हैं--( १ ) ह्रस्व (२) दीर्घ ( ३ ) अनावश्यक अथवा अतिरिक्त । यथा--हृस्व घोरा ( घोड़ा ), दीर्घ घोरवा, अनावश्यक अथवा अतिरिक्त घोरौआ । ह्रस्व के भी निर्बल तथा सबल दो रूप होते हैं । यथा निर्बल घोर्, सबल धोरा । । कुछ समझे ? ‘धोरा' और 'घोरवा ठीक; पर घोरौआ अनावश्यक है ! भाषा में चलता है; पर 'भाषाविज्ञान' उसे अनावश्यक सैमझता है ! और भी देखा ? ‘घोरा ह्रस्व है; पर 'सबल' ! सबलता क्या चीज है ? इम लोग तो ‘घोड़ा' और 'घोरा' को एक-जैसा दीर्धान्त शब्द समझते हैं । दोनो जगह ‘आ है। पर भाषाविज्ञानी’ ‘घोरा' के 'आ’ को ‘सुबल हृस्व' कहता है ! और ‘भाषाविज्ञान' व्यंजनों को भी ह्रस्व' ‘दीर्घ मानता है। ‘घोर' का 'र' 'निर्बल-ह्रस्व' है ! ‘कारक विवेचन भाषाविज्ञान वालो का कारक-विवेचन भी अलौकिक है। दुनिया भर की भाषाओं में कारक छह ही होते हैं, न कम न ज्यादा कारकत्व प्रकट करने के ढंग अलग-अलग हैं। हिन्दी के भाषाविज्ञानी कुछ और कहते हैं ! वे हिन्दी में 'आठ कारक' मानते हैं और कहीं पाँच, कहीं तीन ही; और 'मैथिली' में वे एक ही कारक मानते हैं ! लिखा है , “इस ( मैथिली ) में एक ही कारक-करण-मिलता है, जो ऐ संयुक्त कर के सम्पन्न होता है। यथा ‘नेनें-लड़के के द्वारा। " ओ मिथिला विद्वद्-भूमि के भाइयो, आप की बोली में कर्ता, कर्म, अपादान, अधिकरण होते ही नहीं ! क्या कारण? आप न खाते पीते हैं, न कभी घर-द्वार से बाहर ही होते हैं, न कोई किसी को कुछ ऐसा ही है और न कोई कहीं घरती-आकाश में रहता ही हैं । जब कर्ता हीं नहीं, कर्म हीं नहीं, तब करण कैसे आ सका? राम चाकू से कलम बनाता है। कहें, तभी तो करण चाकू कहा जाए या न।