पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/६५१

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‘यहाँ अव्यय की व्युत्पत्ति खुस्कृत यो’ से इहा' प्रत्यय कर के बुलाई गई है। इहा' क्या है ! और ‘यो' के आगे ‘इहा' रख देने पर भी यहाँ कैसे बन गया ! “अहाँ' करते तब तो कोई बात भी थी । वस्तुतः इह' का विकास भइहाँ है, जैसे ‘कु’ का “कहाँ । इन्हीं की पद्धति पर ‘अहाँ श्रादि ढले । ‘इाँ के ‘इ’ को ‘य’ कर के यहाँ । अवधी में ‘इहाँउहाँ’ रूप चलते हैं ---इहाँ-जहाँ दुई बालक देखे ।' उहाँ' के उ' को 'व' हो गया-वहाँ । यह स्वाभाविक शब्द-विकास है, जो ‘निरुक्त का विषय है। इन यहाँ वहाँ आदि स्वतः-सिद्ध शब्दों को प्रकृति-प्रत्यय रूप से विभक्त कर के भाषा को सुबोध बनानाँ व्याकरण का काम है। यहाँ 'वहाँ आदि को यह वह, आदि सर्वनामों से सिद्ध कैरने से-अर्थ-बोध में सुगमता हो जाती है । इसी लिए अहाँ प्रत्यय कल्पित कर के यह आदि से यहाँ अादि अव्यय व्याकरण में बनाए जाते हैं---स्वतः-सिद्ध शब्दों को प्रकृति-प्रत्यय विभाजन द्वारा समझाया जाता है। भाषा-विज्ञान में प्रत्ययकल्पना नहीं की जा सकती; यह व्याकरण का विषय है। कुछ प्रासंगिक कहना ही है, तो ठीक; परन्तु तर्कसंगत कहना चाहिए । “यो+इहा =: यहाँ जैसी बातें ठीक नहीं । यहाँ कहाँ' आदि को किसी-किसी भाषा-विज्ञानी ने “यो ४ स्मिन्ः “यहाँ और ‘क’-+स्मिन्–हाँ जैसी पद्धति पर भी समझा-समझाया है ! यानी संस्कृत श्रधिकरणकी ‘स्मिन्’ विभक्ति से सब हिन्दी अव्यय बन गए। और ‘यो' से 'यहाँ’ बने गा, तो अर्थ हो गा–‘जिस जगह'। यो माने ‘ओ' । तब “जहाँ किस लिए ? ‘बहुत' को भी अव्यय माना गया है और संस्कृत ‘बहुत्व' से इस की व्युत्पचि दी गई है ! 'नहीं' अव्यय की व्युत्पत्ति ‘न-+अहइनहीं दी गई है ! राम नहीं है। कहना हो, तो कह दीजिए---राम नहीं' | ‘श्रहई तो नहीं में बिद्यमान है ही ! वस्तुतः नही='नहीं' हैं । 'न' और 'नहीं' का प्रयोग मैद' एम पीछे अव्यय-प्रकरण में समझा आए हैं ।। बत, ऐसा ही विवेचन ( हिन्दी के ) भाषाविज्ञान'-संधुन्धी ग्रन्थों में है। नमूने के लिए इतना पर्याप्त है । व्याकरण के प्रसंग में स्मरण जरूरी था।