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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

पहला हिन्दी-साहित्य का आदिकाल सजीव रूप में प्रकट हुए हैं। अहीर और अहीरिनियो की प्रेमगाथाएँ, ग्रामवधूटियों की शृंगार-चेष्टाएँ, चक्की पीसती हुई या पौधों को सोचती हुई ग्राम-ललनाओं के नयनाभिराम चित्र, विभिन्न ऋतुओं के भावोद्दीपक व्यापार इस ग्रन्थ मे बहुत ही मनोरम रूप मे चित्रित हैं और फिर भी इन प्राकृत गाथाओं को लोक-साहित्य नहीं कहा जा सकता। सतर्कता और सावधानी जो संस्कृत-कविता की जान है, इसमे भी है। अग्राम्य मनोहर भावों का चुनाव रुचि के साथ किया गया है। एक करोड़ गाथाओं में से चुनकर सात सौ रत्नों को निकालने की अनुश्रुति उसी सतर्कता और सावधानी की सूचना देती है। इसलिये शाथा को इस विदग्ध-स्वीकृत रूप मे आते-श्राते निश्चय ही कुछ शताब्दियों की यात्रा करनी पड़ी होगी। तीसरे मुकाव की सूचना लेकर एक दूसरा छन्द भारतीय साहित्य के प्रागण में प्रवेश करता है, यह दोहा है। विक्रमोर्वशीय मे इसका सबसे पुराना रूप प्राप्त होता है, जैसे श्लोक, लौकिक संस्कृत का, गाथा, प्राकृत का प्रतीक हो गया है उसी प्रकार दोहा अपभ्रंश का। कभी-कभी एक-आध दोहे प्राकृत के मी बताए गए हैं। जैसे हेमचन्द्र की समस्या-पूर्तिवाला प्रबन्ध-चिन्तामणि का यह दोहा- पहली ताव न अनुहरइ गोरी मुहकमलस्स । अदिट्टी पुनि उन्नमइ पडिपयली चन्दरस्स ।। परन्तु विचार किया जाय तो इस दोहे मे कोई ऐसा विशेष लक्षण नहीं है जिससे इसे अपभ्रंश का दोहा न कहकर प्राकृत का कहा जाय | मुझे तो यह दोहा अपभ्रंश का ही लगता है और सच बात तो यह है कि जहाँ दोहा है वहाँ संस्कृत नही, प्राकृत नहीं, अपभ्रंश है। वैसे तो यह देश बहुत संरक्षणप्रिय है और जो छन्द एक बार चल पड़ा वह निरन्तर चलता रहता है। संस्कृत मे भी दोहे लिखे गए हैं और गाथाएँ भी लिखी गई हैं और प्राकृत मै भी सभी संस्कृत छन्दो का व्यवहार हुना है, दोहे का भी कहीं न कही मिल ही जायगा । परन्तु सचाई यही है कि श्लोक संस्कृत का, गाथा प्राकृत का और दोहा अपभ्रंश का अपना छन्द है। माइल्ल धवल नामक कवि ने 'दच्चसहावपयास' (द्रव्यस्वभावप्रकाश) नामक ग्रन्थ को पहले दोहाबन्द्ध (अर्थात् अपभ्रंश) मे देखा था। लोग उनकी हँसी उड़ाते थे (शायद इसलिये कि अपभ्रंश गॅवारू भाषा थी)। सो उन्होंने गाहाबंध (प्राकृत) मे कर दिया। स्पष्ट ही दोहाबंध का अर्थ अपभ्रंश है और गाहावंध का प्राकृत । माइल्ल धवल कहते है- दवसहावपयासं दोहयबन्धेण आसि जं दिटुं । तं गाहाबन्धेश्य रइयं माइल्ल धवलेण ॥ [जो द्रव्यस्वभाव प्रकाश नामक ग्रन्थ पहले दोहाबंध में दिखता था उसे माइल्लवल ने गाथाबंध मे लिखा। -जैनसाहित्य का इतिहास, पृ०१८ पहले-पहल यह सहज छन्द कब चल पडा-यह कह सकना कठिन है। विक्रमोर्वशीय में का दोहा-छन्द अपभ्रश माषा मे ही निबद्ध है- महँ जानिमियलोयणी, णिसयरु कोइ हरेइ। जाव ण एव जलि सामल, धाराहरु बरसेइ ॥ -विक्रमोर्वशीय, चतुर्थ अंक