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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

tod हिन्दी साहित्य का आदिकाले इससे पता चलता है कि उन दिनो रासायंधकाव्य का एक मुख्य मेद था और उसमें विविध छदो का प्रयोग होता था। पृथ्वीराजरासो इसी श्रेणी का काव्य है। इसमें रासक छंद का प्रयोग बहुत कम हुआ है। हालाँकि स्वयंभू की स्वयंभूकुन्दस् से स्पष्ट है कि रासक २१ मात्राओं का छन्द है, कोमल भापा मे लिखा जाता है, चौदह पर विश्राम होता है। इस प्रकार यह अभिरामतर लधु गतिवाला छंद रासावंध काव्य मे व्यवहृत होकर उसे मधुरतर बना देता है-- एक बीस मत्ताणिह णउ उद्दामगिरु । चटदसाइ बिस्साम हो भगण वीरह थिरु ।। रासाबंधु समिद्ध एड अहिराम अरु । लहु अति अल अवसान विरइअ महुर अरु॥ शार्दूलसाटक का मतलब शार्दूल का खेल है। ठीक विक्रीडित शब्द का अनुवाद समझिए । संस्कृत के शार्दूलविक्रीडित शब्द का किसी ने शदूलसाटम अनुवाद किया होगा। यह थोडी महत्त्वपूर्ण इसलिये है कि रासो' शब्द को लेकर हिन्दी के विद्वानों ने वेमेल बेमतलब के अटकल लगाए हैं। सदेशरासक-जैसे अन्यों के मिलने के बाद भी यह अटकल समाप्त नहीं हुआ है । रासक वस्तुतः एक विशेष प्रकार का खेल या मनोरंजन है। रास मे वही भाव है. सट्टक भी ऐसा ही शब्द है। लोक मे इन मनोरंजक विनोदों को देखकर सस्कृत के नाट्यशास्त्रियों ने इन्हें रूपकों और उपरूपकों में स्थान दिया था। इन शब्दों का अर्थ विशेष प्रकार के विनोद और मनोरजन थे। परवत्ती राजस्थानी काव्यों में चरितकाव्यों मे चरितनायक के नाम के साथ 'रासो', 'विलास', 'रूपक' आदि शब्द देकर अंथ लिखना सढ़ हो गया था। राजस्थानी रणमल्लरासो, रामारासो, सगतसिहरासो, रतनरासो श्रादि रासो-नामधारी अन्य बहुत हैं। फिर 'विलास' नामधारी ग्रन्थ भी कम नहीं है- राजविलास, जगविलास, विजयविलास, रतनविलास, अभयविलास, मीमविलास इत्यादि । और रूपक नाम देकर भी अथ हैं जैसे- राजरूपक, गोगादरूपक, रावरिणमल्ल रूपक, गजसिंहरूपक इत्यादि | ये सब शब्द बाद में चरितकाव्यों के लिये रद हो गए हैं। रासो या रासा नाम देखकर ही वीरगाथा समझ लेना बहुत अच्छे अध्ययन का सबूत नहीं है। शुक्लजी ने वीसलदेवरासो को सष्टरूप से वीरगाथा के बाहर घोषित किया था और अब तो दर्जनों ऐसे रासो या रासानामधारी ग्रन्थ मिले हैं जो वीरगाथा किसी प्रकार नहीं कहे जा सकते है. रासो केवल चरितकाव्य का सूचक है। प्रकाश और विलास भी तथैव च । सो, रासो में का 'साटक' शब्द इशारा करता है कि किसी जमाने में साटक या सट्टक विनोदवाची शब्द था और लोक मे उसका प्रचलन देखकर शास्त्रकारो ने उसे नाट्य भेदों में गिना जिस प्रकार राय या रासक को गिना था। गोस्वामी तुलसीदास का श्राविर्भाव ११वीं शताब्दी में हुआ था, उन दिनों लोक मे बहुत तरह के काव्य प्रचलित रहे होंगे । गोस्वामीजी ने देखा कि ये 'प्राकृतजनगुणगानमूलक काव्य बडा अनिष्टकर प्रभाव फैला रहे हैं। उन्हें इस बात से जरूर ही बहुत क्लेश दुना होगा। चरित्रगत शिथिलता को बढ़ानेवाली चीजे उन्हें बिल्कुल पसन्द नहीं थी।