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हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

हिन्दी-साहित्य का श्रादि काल यह हमने पहले ही देखा है कि कबीरदास का प्रयोग किया हुश्रा एक काव्यल्प 'चाँचर' है। टीकात्रों में इस शब्द का अर्थ खेल बताया गया है। कालिदास और श्रीहर्प आदि के नाटकों मे 'चर्चरी गान' के अनेक उल्लेख हैं। अपभ्रंश में जिनदत्त सुरि की लिखी हुई 'चर्चरी' प्राप्त हुई है। उसके टीकाकार (जिनपाल उपाध्याय) ने भी बताया है कि यह भाषा निबद्ध गान नाच-नाचकर गाया जाता है। इस चर्चरी का प्रथम पद इस प्रकार है- कव्वु अउन्बु जु विरयइ नवरस भर सहिउ । लद्ध पसिद्धिहिं सुकइहिं सायरु जो महिउ । सुकइ माहु ति पसंसहि जे तसु सुहगुरुहु । साहु न मुणइ अयाणुय मइजिय सुरगुरुहु ॥४॥ बीजक का 'चाँचर' ठीक इसी छन्द में नहीं है। ऐसा जान पड़ता है कि चर्चरी या चाँचर की दीर्घ-परंपरा रही होगी। इन दो-चार उदाहरणों से यह प्रमाणित हो जाता है कि बीजक मे जिन काव्यरूपों का प्रयोग किया गया है उनकी परंपरा बहुत पुरानी है। और आलोच्य काल में विभिन्न संप्रदाय के गुरुओं ने धर्मप्रचार के लिये इन काव्य-रूपों को अपनाया था। लीला के पद का लिखे जाने लगे--- यह भी कुछ निश्चय के साथ नहीं कहा जा सकता, परन्तु दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी में मात्रिक छन्दों में श्रीकृष्णलीला के गाने की प्रथा चल पड़ी थी, इसमें कोई सन्देह नहीं। जयदेव का गीतगोविन्द इसी प्रकार के मात्रिक छन्दों के पद में लिखा गया था | पंडितो का अनुमान है कि लोकभाषा मे इस प्रकार के गान लिखे और गाए जाते रहे होंगे। जयदेव ने उन्ही के अनुकरण पर ये गान लिखे थे। जयदेव का जन्म वगाल के वीरभूमि जिले मे हुआ था और उडीसा की जगन्नाथपुरी उनकी साधना का क्षेत्र थी। हाल मे ही उड़ीसा के कुछ विद्वानों ने यह दावा करना शुरू किया है कि जयदेव का जन्म भी उडीसा के किसी गांव में हुना था। जो हो, जयदेव का जन्मस्थान और साधनास्थान पूर्वी मारत में था, यह निर्विवाद है। जयदेव के बाद उसी प्रकार की पदावली बंगाल के चण्डीदास और मिथिला के विद्यापति नामक कवियों ने लिखी। इसलिये साधारणतः यह विश्वास किया जाता है कि यह पद लिखने की प्रथा पूर्वी प्रदेशों से चलकर पश्चिम की ओर आई है। बौद्ध सिद्धों के गान, जयदेव का गीत-गोविन्द, चण्डीदास के पद, विद्यापति के भजन- सभी इस प्रकार का अनुमान करने को प्रोत्साहन करते हैं। परन्तु क्षेमेन्द्र (११वी शताब्दी) के 'दशावतारवर्णन' में कवि ने एक जगह लिखा है कि जब गोविन्द यानी श्रीकृष्ण मथुरापुरी को चले गए तो वियोगक्षिप्तहृदया गोपियों गोदावरी (१) के किनारे पर गोविन्द का गुणगान करने लगी- गोविन्दस्य गतस्य कंसनगरौं व्याप्ता वियोगाग्निना। स्निग्धश्यामलकूललीनहरिणे गोदावरी - गहरे ।