पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/४६

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द्वितीय व्याख्यान कान्यकुन्ज मे उस समय तक भी दक्षिण के राष्ट्रकूटों की स्मृति बनी थी। वे जैन थे। संभवतः उनसे अपने को भिन्न घोषित करने के लिए ही इन राजानों ने अपनी प्रशस्तियों मे 'राष्ट्रक्ट' शब्दों का व्यवहार नहीं किया, पर उनके घर में यह परम्परा बराबर बनी रही कि वे 'राठौड़ है। मुझे लगता है कि काशी के आस-पास के गहरवार इन्ही गाहडवालो के उत्तराधिकारी हैं। गोन और कुल का विवाद खड़ा करके इनको जोधपुर के राठौड़ों से या काशी के गाहड़वाल राजाश्रो से मिन्न बतानेवाले इस देश मे राजपूत गोत्रों की परंपरा से एकदम अपरिचित हैं। परन्तु यह थोडी अवान्तर बात श्रा गई। प्रकृत प्रसंग यह है कि गाहड़वाल राजा शुरू-शुरू में अपने को इस प्रदेश की जनता से भिन्न और विशिष्ट बने रहने की प्रवृत्ति के कारण देशी भाषा और उसके साहित्य को आश्रय नहीं दे सके और यही कारण है कि जहाँ तक उनका राज्य था वहाँ तक का कोई देशी भाषा का साहित्य सुरक्षित नहीं रह सका। अन्तिम पीढियों मे ये लोग देशी भाषा के साहित्य को प्रोत्साहन देने लगे थे , किन्तु तबतक दुर्भाग्य का प्रहार हुआ और संपूर्ण उत्तरी भारत विदेशी शासन से आक्रान्त हो गया। इन नये शासकों को देशी जनता के साथ एक होने मे और भी अधिक समय लगा। उधर अजमेर के चौहान उस प्रदेश के पुराने वाशिन्दे थे। सन् ईसवी की आठवीं शताब्दी के मध्यभाग में ही सपादलक्ष (सवा लाख लगान का देश) या शाकंभरी क्षेत्र (सॉभर) मे सामन्तसिंह ने चौहानवश का राज्य स्थापित किया था। उसने उसी समय सिंघ की ओर से बढ़ते हुए अरबों से कस के लोहा लिया था और इस प्रकार चौहानों की वह वीर-परपरा स्थापित की थी जो तृतीय पृथ्वीराज के समय तक मुस्लिम-वाहिनी से निरन्तर टक्कर लेने मे प्रख्यात हो चुकी है। महमूद ने सॉभर को नहीं छोड़ा था । इसलिये यह राज्य बचा रह गया था। प्रथम पृथ्वीराज के युत्र अजयपाल ने सॉभर से अपनी राजधानी अजमेर में हटा ली थी। अजमेर का नाम अजयसिंह के नाम पर ही है । इस वंश मे अणोंराज और चतुर्थ बीसलदेव (विग्रहराज) बहुत ही प्रतापी और कविकल्पवृक्ष राजा हुए। बीसलदेव स्वयं अच्छे कवि थे | उनका लिखा एक प्रस्तरखण्ड पर क्षोदित 'हर-केलि नाटक' आशिक रूप में प्रास हुआ है। इसका अाधार किरातार्जुनीय काव्य है, इसमें राजा स्वयं अर्जुन का स्थानापन्न है । महादेव जी उसे दर्शन भी देते हैं। इनके राजकवि सोमदेव ने ललितविग्रहराज नाम का एक नाटक लिखा था। यह भी एक प्रस्तरखएड पर श्राशिक रूप मे क्षोदित मिला है। इसमे इन्द्रपुर के राजा वसन्तपाल की पुत्री देसलदेवी के साथ बीसलदेव के प्रेम का वर्णन है। राजा और राजपुत्री कल्पित जान पड़ते हैं और उन दिनों के ऐतिहासिक समझे जानेवाले काव्यों की प्रकृति का सुन्दर परिचय देते हैं। इसी बीसलदेव के काल्पनिक प्रेम-कथानक को परवर्ती काव्य बीसलदेवरासो मे वर्णन किया गया है। यहाँ प्रेमपात्री मालया के परमाल राजा भोज की कल्पित पुत्री राजमती है । इस काव्य मे बीसलदेव रूठकर उडीसा की ओर जाता है, परन्तु 'ललितविग्रहराज' मे यह प्रिया के पास यह संदेश भिजवाता है कि पहले हम्मीर (= अमीर) का मानमर्दन कर लूं तब उसके पास आऊँगा। दोनों ही कवियों ने ऐतिहासिक १. ई० ए० जिल्द २०, १८९१ , पृ० २०१-२२३ में रोमन अक्षरों में पाठ छपा है।