पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
३४
हिन्दी-साहित्य का आदिकाल

३४ हिन्दी-साहित्य को आदिकान रे गोड थक्कन्ति ते हत्थि जूहाई। पल्लट्टि जुज्झन्ति पाईक बूहाई। कासीसु राा सरासार अग्गेण । की हस्थि की पत्ति की वीरवग्गेण ॥ अरे गौड़ (देश के राजा)! तेरे हाथियों के यूथ थक गए हैं, पदातिक सेना के व्यूह पलटकर जूझ रहे हैं। जब काशी के राजा के बाणो की वर्षा होने लगती है तब कोई भी क्या हायी क्या पैदल सेना और वीरवर्ग-सामने नही हट सकता।] रामह भम्गंता दिग लग्गंता, परिहर हर गम घर घरिणी। लोरहि भर सरवर पत्र अरु परिकरु लद्दोइ पिट्टई तणु धरनी ॥ पुणु उठ्इ संभलि करु दंतंगुलि बाल तना कर जमल करे। कासीसरु रा राहलु कामा, करु माया पुणु थप्पि घरे ॥ [शत्रु राजा अपने हाथी, घोडे, घर और घरनी को छोड़कर दिगन्तरों मे भाग गए। उनके पदातिक और परिकर लोग तथा परिवार की स्त्रियों छाती पीटकर रोने लगी और धरती पर लोटने लगीं। उनके आँसुओं से तालाब भर गए। फिर वे संभलकर उठी, दाँतों तले अंगुली दबाकर बालक पुत्रों को गोद मे लिए हुए हाथ जोडकर उपस्थित हुई । स्नेहल कायावाले काशीश्वर ने उनपर दया की और फिर से उन्हें अपने अपने पदों पर प्रतिष्ठित किया। ___ इसी प्रकार की और भी कई रचनाएँ मिलती हैं। राहुलजी का अनुमान है कि ये सव रचनाएँ विद्याधर की होंगी। ऐसा जान पड़ता है कि दो सौ वर्षों तक काशी मे और कान्यकुब्ज मे राज्य करने के कारण गाडवाल-नरेश काशी और कान्यकुब्ज की भापा को अपनी भाषा समझने लगे थे और शुरू-शुरू के गाहड़वालों में अपने को स्थानीय जनता से विशेष और मिन्न समझने की जो प्रवृत्ति थी, वह कम होने लगी थी। गोविन्दचंद्र के सभापगिडत दामोदरभट्ट ने राजकुमारों को काशी की भाषा मे संस्कृत सिखाने का प्रयत्न किया था और उसका परिणाम यह हुआ कि राजकुमार अब अपने को इसी प्रदेश के लोगों में से समझने लगे थे और धीरे-धीरे देशी भाषा को भी इस दरबार मे प्रोत्साहन मिलने लगा था। दुर्भाग्यवश जयचन्द्र के साथ ही प्रोत्साहन और प्रवृत्ति दोनों का अन्त हो गया। __ परन्तु इतना सत्य है कि पे गाहड़वाल कहीं बाहर से आये थे। कहाँ से आए थे, यह विवादास्पद है। जोधपुर के राठौड अपने को जयचन्द्र का वंशज मानते हैं और बदायूँ में भी महमूद के अाक्रमण के समय कोई राठौडवंशीय राजा चन्द्र राज्य करता था। यह नहीं बताया गया कि वह बदायूँ में कहाँ से आया था; परन्तु अनुमान कर लिया जा सकता है कि गजनी के अमीरों के दबाव से जो राजपूत पंजाब या गाधार छोडकर पूरब की ओर आए, उन्हीं में यह राजवंश भी था। चन्द्र की छठी पुश्त में मदनपाल हुश्रा था जिसकी प्रशंसा में कहा गया है कि उसी की शक्ति के कारण हम्मीर गंगा की अोर नहीं आ सका। हम्मीर अर्थात् अमीर जो हो, यह अनुमान किया गया है कि इसी वंश के प्रथम राजा चन्द्र ने और भी आगे बढ़कर कान्यकुब्ज पर अधिकार कर लिया था। यह संभव जान पड़ता है । यह अनुमान यदि ठीक हो तो गाहडवाल दक्षिण से नहीं, पश्चिम से आए थे। काशी-