पृष्ठ:हिंदी साहित्य का आदिकाल.pdf/४८

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द्वितीय व्याख्यान अकाल के समय जनता की बड़ी सेवा की थी और तत्कालीन कवियों ने इनके दान की बड़ी प्रशंसा की है- नियतिदानदाता हरिकान्ताहृदयशृगारः । दुर्मिक्षसन्निपाते त्रिजगड्डु जगडू चिरंजीयात् । -पु० प्र०टि०-८० नियति अर्थात् संरक्षित निधि को भी दे देने वाले, लक्ष्मी के हृदय का हार रूपी शृंगार, दुर्भिक्ष रूप सन्निपात-रोग के लिये त्रिजगड्डु (ोषधि) जगडू साह चिरजीवी हो।] देशी भाषा मे इनकी दानशाला की प्रशंसा मे कुछ पद्म प्रचलित हैं। एक दोहा मिलता है, जिसमें बताया गया है कि कलियुग में जगडू साह की दानशाला के समान कितनी दानशालाएँ हैं ! इस दोहे की प्रथम पंक्ति कुछ अस्पष्ट है- नव करवाली मणिअडा तिहिं अग्गला चियारि । दानसान जगडू तणी कित्ती कलिहि मझारि ।। --पु० प्र० टि० ८०॥ इसका पाठ उपदेशतरगिणी (पृ. ४१) में इस प्रकार है- नउ करवाली मणियडा ते अम्गीला च्यारि। दानसाल जगडूतणी दीसइ पुहवि मंझार ॥ जगह बडे सीधे-सादे थे। उस समय के सभी राजाओं को उन्होंने अकाल में सहायता देने के लिये अशर्फियों से सहायता की थी। वीसलदेव को आठ हजार स्वर्णमुद्राएँ दी थीं, लाहौर के तुर्क अमीरों को १६ हजार और सुलतान को २१ हजार स्वर्ण मुद्राएँ दी थीं !-~- अट्ठय मूड सहस्सावीसल देवस्स सोल हस्मीरा । एकबीसा सुलताना पयदिन्ना जगड दुकाले ॥ 'मूड' का अर्थ मैंने 'मुद्रा' कर लिया है। पाठकों को जानकारी के लिये यह बता देना आवश्यक है कि जिस प्रसंग में इन श्लोकों को किमी ने 'पुरातन-प्रबन्ध-सग्रह' के हाशिए पर लिखा है, वहाँ १८००० मूढक चना बीसलदेव को देना कहा गया है जो माप-विशेष का वाचक है। यदि यहाँ 'मूड' शब्द 'मूढक' के अर्थ में प्रयुक्त समझा जाय तो अर्थ माप का ही होगा। परन्तु यह श्लोक उक्त प्रसंग का अंग नही है और अन्य ग्रन्थो मे भी मिल जाता है। इसलिये मैने 'मुद्रा' अर्थ ही ठीक समझा है। __ इस प्रकार के उदार दानी धनकुवेर के बारे मे प्रसिद्ध है कि वे इतने सीधे-सादे वेश मे रहते थे कि एक बार राजा वीसलदेव उन्हे पहचान ही नहीं सके, और जब परिचय कराया गया तब आश्चर्य के साथ पूछ बैठे कि ऐसा वेश क्यों बनाया है ? जगडू ने नम्रता के साथ उत्तर दिया कि महाराज, कपडे और गहनो से शोभा नहीं बढ़ती, मनुष्य गुण से शोभा पाता है। गहना पहनकर छोटी अँगुलियों सुशोभित होती हैं, मध्यमा तो अपनी वड़ाई से ही बड़ी लगती है !-- तन्वन्ति डम्वरभरैमहिमा न मन्ये श्लाघ्यो जनस्तु गुणगौरवसम्पदैव । शोमा विभूषणगुणैरितरामुलीनां ज्येष्ठत्वमेव रुचिरं खलु मध्यमायाः ॥