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रामभक्ति-शाखा

तोताद्रि को था वही महत्व रामानंदी संप्रदाय के लिये उत्तर-भारत में गलता को प्राप्त हुआ। वह 'उत्तर तोताद्रि' कहलाया। कृष्णदास पयहारी राजपूताने की ओर के दाहिमा (दाधीच्य) ब्राह्मण थे। जैसा कि आदिकाल के अंतर्गत दिखाया जा चुका है, भक्ति-आदोलन के पूर्व, देश में––विशेषतः राजपूताने में––नाथपंथी कनफटे योगियों का बहुत प्रभाव था जो अपनी सिद्धि की धाक जनता पर जमाए रहते थे[१]। जब सीधे-सादे वैष्णव भक्तिमार्ग का आंदोलन देश में चला तब उसके प्रति दुर्भाव रखना उनके लिये स्वाभाविक था। कृष्णदास पयहारी जब पहले-पहल गलता पहुँचे तब, वहाँ की गद्दी नाथपंथी योगियों के अधिकारी में थी। वे रात भर टिकने के विचार से वहीं धूनी लगाकर बैठ गए। पर कनफटो ने उन्हें उठा दिया। ऐसा प्रसिद्ध है कि इसपर पयहारीजी ने भी अपनी सिद्धि दिखाई और वे धूनी के आग एक कपड़े में उठाकर दूसरी जगह जा बैठे। यह देख योगियों का महंत बाघ बनकर उनकी ओर झपटा। इस पर पयहारीजी के मुँह से निकला कि "तू कैसा गदहा है?"। वह महंत तुरंत गदहा हो गया और कनफटों की मुद्राए उनके कानो से निकल निकलकर पयहारी जी के सामने इकट्ठी हो गई। आमेर के राजा पृथ्वीराज के बहुत प्रार्थना करने पर महंत फिर आदमी बनाया गया। उसी समय राजा पयहारीजी के शिष्य हो गए और गलता की गद्दी पर रामानंदजी वैष्णवों का अधिकार हुआ।

नाथपंथी योगियों के कारण जनता के हृदय में योग-साधना और सिद्धि के प्रति आस्था जमी हुई थी। इससे पयहारीजी की शिष्य परंपरा में योग-साधना का भी कुछ समावेश हुआ। पयहारीजी के दो प्रसिद्ध शिष्य हुए––अग्रदास और कील्हदास। इन्हीं कील्हदास की प्रवृत्ति रामभक्ति के साथ साथ योगाभ्यास की ओर भी हुई जिससे रामानंदजी की वैरागी-परंपरा की एक शाखा में योगसाधना का भी समावेश हुआ। यह शाखा वैरागियों में 'तपसी शाखा' के नाम से प्रसिद्ध हुई। कील्हदास के शिष्य द्वारकादास ने इस शाखा को और पल्लवित किया। उनके संबंध में भक्तमाल में ये वाक्य है––


  1. देखो पृ० १५––१६