पृष्ठ:हिंदी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल.pdf/१४३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
१२०
हिंदी-साहित्य का इतिहास

आनि सजीवन प्रान उबारयो। मही सब्रत कै भुजा उपारयो॥
गाढ़ परे कपि सुमिरों तोही। होहु दयाल देहु जस मोही॥
लंकाकोट समुंदर खाई। जात पवनसुत बार न लाई॥
लंक प्रजारि असुर सच मारयो। राजा राम के काज सँवारयो॥
घंटा ताल झालरी बाजै। जगमग जोति अवधपुर छाजै॥
जो हनुमानजी की आरति गावै। बसि बैंकुंठ अरमपद पावै॥
लंक बिधंस कियौ रघुराई। रामानंद आरती गाई॥
सुर नर मुनि सब करहिं आरती। जै जै जै हनुमान लाल की॥

स्वामी रामानंद का कोई प्रामाणिक वृत्त न मिलने से उनके संबंध में कई प्रकार के प्रवादों के प्रचार का अवसर लोगो को मिला है। कुछ लोगों का कहना है कि रामानद जी अद्वैतियो के ज्योतिर्मठ के ब्रह्मचारी थे। इस संबंध में इतना ही कही जा सकता है कि यह संभव है कि उन्होंने ब्रह्मचारी रहकर कुछ दिन उक्त मठ से वेदांत का अध्ययन किया हो, पीछे रामानुजाचार्य के सिद्धांतों की ओर आकर्षित हुए हैं।

दूसरी बात तो उनके संबंध में कुछ लोग इधर-उधर कहते सुने जाते है। वह यह है कि उन्होंने बारह वर्ष तक गिरनार या आबू पर्वत पर योग-साधना करके सिद्धि प्राप्त की थी। रामानंदजी के जो दो ग्रंथ प्राप्त हैं तथा उनके संप्रदाय में जिस ढंग की उपासना चली आ रही है उससे स्पष्ट है कि वे खुलें हुए विश्व के बीच भगवान की कला की भावना करने वाले विशुद्ध वैष्णव भक्तिमार्ग के अनुयायी थे, घट के भीतर ढूँढ़।ने वाले योगमार्गी नहीं। इसलिये योग-साधनावाली प्रसिद्धि का रहस्य खोलना आवश्यक है।

भक्तमाल में रामानंदजी के बारह शिष्य कहे गए है––अनंतानंद, सुखानंद, सुरसुरानंद, नरहर्यानंद, भावानंद, पीपा, कबीर, सेन, धना, रैदास, पद्मावती और सुरसुरी।

अनंतानंदजी के शिष्य कृष्णदास पयहारी हुए जिन्होंने गलता (अजमेर राज्य, राजपूताना) में रामानंद संप्रदाय की गद्दी स्थापित की। यही पहली और सबसे प्रधान गद्दी हुई। रामानुज संप्रदाय के लिये दक्षिण में जो महत्त्व