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रामभक्ति-शाखा

देखनेवाले भक्त थे। जिस व्यक्त जगत् के बीच उन्हे भगवान् के राम-रूप की कला का दर्शन कराना था, पहले चारो ओर दृष्टि दौड़ाकर उसके अनेक रूपात्मक स्वरूप को उन्होंने सामने रखा हैं। फिर उसके भले-बुरे पक्षों की विषमता देख-दिखाकार अपने मन का यह कहकर समाधान किया है––

सुधा सुरा सम साधु असाधू। जनक एक जग-जलधि अगाधू॥

इसी प्रस्तावना के भीतर तुलसी ने अपनी उपासना के अनुकूल विशिष्टाद्वैत सिद्धात का भी आभास यह कहकर दिया––

सिया-राम-मय सब जग जानी। करौं प्रनाम जोरि जुग पानी॥

जगत् को केवल राममय न कहकर उन्होंने 'सिया-राम-मय' कहा है। सीता, प्रकृतिस्वरूपा हैं और राम ब्रह्म है; प्रकृति अचित् पक्ष है और ब्रहा चित् पक्ष। अतः पारमार्थिक सत्ता चिदचिद्विशिष्ट है, यह स्पष्ट झलकता है। चित् और अचित् वस्तुतः एक ही हैं, इसका निर्देश उन्होंने

गिरा अर्थ, जल बीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न।
बंदौ सीता-राम-पद जिनहिं परम प्रिय खिन्न॥


कहकर किया है।

'रामचरितमानस' के भीतर कहीं-कहीं घटनाओं के थोड़े ही हेर-फेर तथा स्वकल्पित संवादों के समावेश के अतिरिक्त अपनी ओर से छोटी-मोटी घटनाओं या प्रसगों की नई कल्पना तुलसीदासजी ने नहीं की हैं। 'मानस' में उनका ऐसा न करना तो उनके उद्देश्य के अनुसार बहुत ठीक है। राम के प्रामाणिक चरित द्वारा वे जीवन भर बना रहने वाला प्रभाव उत्पन्न करना चाहते थे, और काव्यों के समान केवल अल्पस्थायी रसानुभूति मात्र नहीं। 'ये प्रसंग तो केवल तुलसी द्वारा कल्पित हैं', यह धारणा उन प्रसंगों का कोई स्थायी प्रभाव श्रोंताओं या पाठकों पर न जमने देती। पर गीतावली तो प्रबंध-काव्य न थी । उसमें तो सूर के अनुकरण पर वस्तु-व्यापार-वर्णन का बहुत विस्तार हैं। उसके भीतर छोटे छोटे नूतन प्रसंगों की उद्भावना को पूरा अवकाश था, फिर भी कल्पित घटनात्मक प्रसंग नहीं पाए जाते। इससे यही प्रतीत होता है कि उनकी प्रतिभा अधिकतर उपलब्ध प्रसंगों को लेकर चलनेवाली थी; नए नए