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कृष्णभक्ति-शाखा

ऐतिहासिक तथ्य केवल इतना ही है कि इन्होने गोसाईं विट्ठलनाथजी से दीक्षा ली। ध्रुवदासजी ने भी अपनी 'भक्त-नामावली' में इनकी भक्ति की प्रशंसा के अतिरिक्त और कुछ नहीं लिखा है।

अष्टछाप में सूरदासजी के पीछे इन्हीं का नाम लेना पड़ता है। इनकी रचना भी बड़ी सरस और मधुर है। इनके संबंध में यह कहावत प्रसिद्ध है, कि "और कवि गढ़िया, नंददास जडिया"। इनकी सबसे प्रसिद्ध पुस्तक 'रास-पंचाध्यायी' है जो रोला छंदों में लिखी गई है। इसमे, जैसा कि नाम से ही प्रकट है, कृष्ण की रासलीला का अनुप्रासादि-युक्त साहित्यिक भाषा में विस्तार के साथ वर्णन है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, सूर ने स्वाभाविक चलती भाषा का ही अधिक आश्रय लिया है, अनुप्रास और चुने हुए संस्कृत पदविन्यास आदि की ओर प्रवृत्ति नहीं दिखाई है, पर नंददासजी में ये बातें पूर्ण रूप में पाई जाती हैं। "रास-पंचाध्यायी" के अतिरिक्त इन्होंने ये पुस्तके लिखी है––

भागवत दशमस्कंध, रुक्मिणी मंगल, सिद्धांत-पंचाध्यायी, रूपमंजरी, रस-मंजरी, मानमंजरी, विरह-मंजरी, नामचिंतामणिमाला, अनेकार्थनाममाला (कोश) ज्ञानमंजरी, दानलीला, मानलीला, अनेकार्थमंजरी श्यामसगाई, भ्रमरगीत और सुदामाचरित। दो ग्रंथ इनके लिखे और कहे जाते हैं––हितोपदेश और नासिकेतपुराण (गद्य में)। दो सौ से ऊपर इनके फुटकल पद भी मिले हैं। जहाँ तक ज्ञात है, इनकी चार पुस्तके ही अब तक प्रकाशित हुई हैं––रासपंचाध्यायी, भ्रमरगीत, अनेकार्थमंजरी, और अनेकार्थनासमाला। इनमें रासपंचाध्यायी और भ्रमरगीत ही प्रसिद्ध है, अतः उनसे कुछ अवतरण नीचे दिए जाते है––

(रास-पंचाध्यायी से)

ताहौ छिन उडुराज उदित रस-रास-सहायक। कुंकुम-मंडित-बदन प्रिया जनु नागरि-नायक॥
कोमल किरन अरुन मानों बन व्यापि रही यों। मनसिज खेल्यो फाग घुमडि घुरि रह्यो गुलाल ज्यों॥
फटिक-छटा सी किरन कुंज-रंध्रन जब आई। मानहुँ वितत बिनान सुदेस तनाव तनाई॥
तब लीनो कर कमल योगमाया सी मुरली। अघटित-घटना-चतुर बहुरि अधरन सुर जुरली॥