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हिंदी-साहित्य का इतिहास

वर उर उरज करज विच अंकित, बाहु जुगल वलयावलि फूटी।
कंचुकि चीर विविध रंग रंजित, गिरधर-अधर-माधुरी घूँटी॥
आलस-बलित नैन अनियारे, अरुन उनींदे रजनी खूटी।
परमानंद प्रभु सुरति समय रस मदन नृपति की सैना लूटी॥

(५) कुंभनदास––ये भी अष्टछाप के एक कवि थे और परमानंददासजी के ही समकालीन थे। ये पूरे विरक्त और धन, मान, मर्यादा की इच्छा से कोसों दूर थे। एक बार अकबर बादशाह के बुलाने पर इन्हें फतहपुर सिकरी जाना पड़ा जहाँ इनका बड़ा संमान हुआ। पर इसका इन्हें बराबर खेद ही रहा, जैसा कि इस पद से व्यंजित होता है––

संतन को कहा सीकरी सों काम?
आवत जात पुनहियाँ टूटी, बिसरि गयो हरि-नाम॥
जिनको मुख देखे दुख उपजत, तिनको करिबे परी सलाम।
कुम्भनदास लाल गिरिधर बिनु और सबै बेकाम॥

इनका कोई ग्रंथ न तो प्रसिद्ध है और न अब तक मिला है। फुटकल पद अवश्य मिलते हैं। विषय वही कृष्ण की बाललीला और प्रेमलीला है––

तुम नीके दुहि जानत गैया।
चलिए कुँवर रसिक मनमोहन लगौं तिहारे पैयाँ॥
तुमहिं जानि करि कनक-दोहनी घर तें पठई मैया।
निकटहि है यह खरिक हमारो, नागर लेहुँ बलैया॥
देखियत परम सुदेस लरिकई चित चहुँट्यों सुँदरैया।
कुंभनदास प्रभु मानि लई रति गिरि-गोबरधन-रैया॥

(६) चतुर्भुजदास––ये कुंभनदासजी के पुत्र और गोसाईं विठ्ठलनाथजी के शिष्य थे। ये भी अष्टछाप के कवियों में है। इनकी भाषा चलती और सुव्यवस्थित है। इनके बनाए तीन ग्रंथ मिले हैं––द्वादशयश, भक्ति-प्रताप तथा हितजू को मंगल।

इनके अतिरिक्त फुटकल पदों के संग्रह भी इधर-उधर पाए जाते है। एक पद नीचे दिया जाता है––