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हिंदी-साहित्य का इतिहास

द्विज कनौज कुल कस्यपी रतनाकर-सुत धीर। बसत त्रिविक्रम पुर सदा, तरनि-तनूजा तीर॥
बीर बीरवल से जहाँ उपजे कवि अरु भूप। देव बिहारीश्वर जहाँ, विवेश्वर तद्रूप॥

इनका जन्मस्थान तिकवाँपुर ही ठहरता है; पर कुल का निश्चय नहीं होता। यह तो प्रसिद्ध ही है कि ये अकबर के मंत्रियों में थे और बड़े ही वाक्चतुर और प्रत्युत्पन्नमति थे। इनके और अकबर के बीच होने वाले विनोद और चुटकुले उत्तर भारत के गाँव गाँव में प्रसिद्ध हैं। महाराज वीरबल ब्रजभाषा के अच्छे कवि थे और कवियों का बड़ी उदारता से सम्मान करते थे। कहते हैं, केशवदासजी को इन्होने एक बार छः लाख रुपए दिए थे और केशवदास, की पैरवी से ओरछा-नरेश पर एक करोड़ का जुरमाना मुआफ करा दिया था। इनके मरने पर अकबर ने यह सोरठा कहा था––

दीन देखि सब दीन, एक न दीन्हों दुसह दुख।
सो अब हम कहँ दीन, कछु नहिं राख्यो बीरबल॥

इनकी कोई पुस्तक नहीं मिलती है, पर कई सौ कवित्तों का एक संग्रह भरतपुर में है। इनकी रचना अलंकार आदि काव्यागों से पूर्ण और सरस होती थी। कविता में ये अपना नाम ब्रह्म रखते थे। दो उदाहरण नीचे दिए जाते है––

उछरि उछरि केकी झपटै उरग पर,
उरग हू केकिन पै लपटैं लहकि हैं।
केकिन के सुरति हिए की ना कछु हैं, भए
एकी करि केहरि, न बोलत बहकि है॥
कहै कवि ब्रह्म वारि हेरत हरिन फिरैं,
बैहर बहत बडे़ जोर सों जहकि है।
तरनि कै तावन तवा सी भई भूमि रही,
दसहू दिसान में दवारि सी बहकि है॥

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पूत कपूत, कुलच्छनि नारि, लराक परोसि, लजायन सारो।
बंधु कुबुद्धि, पुरोहित लंपट, चाकर चोर, अतीय धुतारो॥