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रीति-ग्रंथकार कवि

मम्मट के काव्यप्रकाश को छायानुवाद है। साहित्यशास्त्र का अच्छा ज्ञान रखने के कारण इनके लिये यह स्वाभाविक था कि ये प्रचलित लक्षण-ग्रंथो की अपेक्षा अधिक प्रौढ़ निरूपण का प्रयत्न करें। इसी उद्देश्य से इन्होंने अपना 'रस-रहस्य' लिखा। शास्त्रीय निरूपण के लिये पद्य उपयुक्त नहीं होता, इसका अनुभव इन्होंने किया, इससे कहीं कहीं कुछ गद्य वार्तिक भी रखा। पर गद्य परिमार्जित न होने के कारण जिस उद्देश्य से इन्होंने अपना यह ग्रंथ लिखा वह पूरा न हुआ। इस ग्रंथ का जैसा प्रचार चाहिए था, न हो सका। जिस स्पष्टता से 'काव्यप्रकाश' में विषय प्रतिपादित हुए है वह स्पष्टता इनके भाषा-गद्यपद्य में न आ सकी। कहीं कहीं तो भाषा और वाक्य-रचना दुरूह हो गई है।

यद्यपि इन्होंने शब्दशक्ति और भावादि-निरूपण में लक्षण उदाहरण दोनों बहुत कुछ काव्यप्रकाश के ही, दिए हैं पर अलंकार प्रकरण में इन्होंने प्रायः अपने आश्रयदाता महाराज रामसिंह की प्रशंसा के स्वरचित उदाहरण दिए हैं। ये ब्रजमंडल के निवासी थे अतः इनको ब्रज की चलती भाषा पर अच्छा अधिकार होना ही चाहिए। हमारा अनुमान है, जहाँ इनको अधिक स्वच्छंदता रही होगी वहाँ इनकी रचना और सरस होगी। इनकी रचना का एक नमूना दिया जाता है।

ऐसिय कुंज बनीं छबिपुंज, रहै अलिगुज्रत यों सुख लीजै।
नैन बिसाल हिए बनमाल बिलोकत रूप-सुधा भरि पीजै॥
जामिनि-जाम की कौन कहै, जुग जात न जानिए ज्यों छिन छीजै।
आनँद यों उमग्योई रहै, पिय मोहन को मुख देखियो कीजै॥

(९) सुखदेव मिश्र––दौलतपुर (जि॰ रायबरेली) में इनके वंशज अब तक हैं। कुछ दिन हुए उसी ग्राम के निवासी सुप्रसिद्ध पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी ने इनका एक अच्छा जीवनवृत्त 'सरस्वती' पत्रिका में लिखा था। सुखदेव मिश्र को जन्मस्थान 'कपिला' था जिसका वर्णन इन्होंने अपने "वृत्तविचार" में किया। इनका कविता-काल संवत् १७२० से १७६० तक माना जा सकता है। इनके सात ग्रंथों का पता अब तक है––