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रीति-ग्रंथकार कवि

महाराज बरिबंडसिंह की सभा को सुशोभित करते थे। काशी-नरेश ने इन्हें चौरा ग्राम दिया था। इनके पुत्र गोकुलनाथ; पौत्र गोपीनाथ और गोकुलनाथ के शिष्य मणिदेव ने महाभारत का भाषा-अनुवाद किया जो काशिराज के पुस्तकालय में है। शिवसिंहजी ने इनके चार ग्रंथों के नाम लिखे हैं––

काव्य-कलाधर, रसिकमोहन, जगतमोहन, और इश्क-महोत्सव। बिहारी सतसई की एक टीका का भी उल्लेख उन्होंने किया है। इसकी कविता-काल संवत् १७९० से १८१० तक समझना चाहिए।

'रसिकमोहन' (स॰ १७९६) अलंकार का ग्रंथ है। इसमें उदाहरण केवल शृंगार के ही नहीं है, वीर आदि अन्य रसों के भी बहुत अधिक है। एक अच्छी विशेषता तो यह है कि इसमें अलंकारों के उदाहरण में जो पद्य आए हैं उनके प्रायः सब चरण प्रस्तुत अलंकार के सुंदर और स्पष्ट उदाहरण होते हैं। इस प्रकार इनके कवित्त या सवैया का सारा कलेवर अलंकार को उदाहृत करने में प्रयुक्त हो जाता है। भूषण आदि बहुत से कवियों ने अलंकारों के उदाहरण में जो पद्य रखे है उनका अंतिम या और कोई चरण ही वास्तव में उदाहरण होता है। उपमा के उदाहरण में इनका यह प्रसिद्ध कवित्त लीजिए––

फूलि उठे, कमल से अमल हितू के नैन,
कहै रघुनाथ भरे चैनरस सिय रे।
दौरि आए भौंर से करत गुनी गुनगान,
सिद्ध से सुजान सुखसागर सों नियरे॥
सुरभी सी खुलन सुकवि की सुमति लागी,
चिरिया सी जागी चिंता जनक के जियरे।
धनुष पै ठाढें राम रवि से लसत आजु,
भोर कैसे नखत नरिंद भए पियरे॥

"काव्य-कलाधर" (सं॰ १८०२) रस का ग्रंथ है। इसमें प्रथानुसार भावभेद, रसभेद, थोड़ा बहुत कहकर नायिकाभेद, और नायकभेद का ही विस्तृत वर्णन है। विषय-निरूपण इसका उद्देश्य नहीं जान पड़ता। 'जगत्मोहन' (सं॰