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रीति-ग्रंथकार कवि

तक यह न ज्ञात हो कि कवि-परंपरा में आँख की उपमा मछली से दिया करते है, जब तक यह सब अर्थ स्फुट नहीं हो सकता।

प्रतापसाहीजी‌ का वह कौशल अपूर्व है कि उन्होंने एक रसग्रंथ के अनुरूप नायिकाभेद के क्रम से सब पद्य रखे हैं जिससे उनके ग्रंथ को जी चाहे तो नायिकाभेद का एक अत्यंत सरस और मधुर ग्रंथ भी कह सकते हैं। यदि हम आचार्यत्व और कवित्व दोनों के एक अनूठे संयोग की दृष्टि से विचार करते हैं। तो मतिराम, श्रीपति और दास से ये कुछ बीस ही रहते हैं। इधर भाषा की स्निग्ध सुख-सरल गति, कल्पना की मूर्तिमत्ता और हृदय की द्रवणशीलता मतिराम, श्रीपति और बेनी प्रवीन के मेल में जाती है तो उधर आचार्यत्व इन तीनो से भी और दास से भी कुछ आगे ही दिखाई पड़ता है। इनकी प्रखर प्रतिभा ने मानों पद्माकर के साथ साथ रीतिबद्ध काव्यकला को पूर्णता पर पहुँचाकर छोड़ दिया। पद्माकर की अनुप्रास-योजना कभी भी रुचिकर सीमा के बाहर जा पड़ी है, पर भावुक और प्रवीण की वाणी में यह दोष कही नहीं आने पाया है। इनकी भाषा में बड़ा भारी गुण यह है कि वह बराबर एक समान चलती है––उसमें न कहीं कृत्रिम आडंबर का अड़गा है, न गति का शैथिल्य और न शब्दों की तोड़-मरोड़। हिंदी के मुक्तक-कवियों में समस्यापूर्ति की पद्धति पर रचना करने के कारण एक अत्यंत प्रत्यक्ष दोष देखने में आता है। उनके अंतिम चरण की भाषा तो बहुत ही गँठी हुई, व्यवस्थित और मार्मिक होती है पर शेष तीनों चरणों में यह बात बहुत ही कम पाई जाती है। बहुत से स्थलों पर तो प्रथम तीन चरणों की वाक्यरचना बिल्कुल अव्यवस्थित और बहुत सी पदयोजना निरर्थक होती है। पर 'प्रताप' की भाषा एकरस चलती है। इन सब बातों के विचार से हम प्रतापजी की पद्माकरजी के समकक्ष ही बहुत बड़ा कवि मानते है।

प्रतापजी की कुछ रचनाएँ यहाँ उद्धृत की जाती हैं––

चंचलता अपनी तजि कै रस ही रस सों रस सुंदर पीजियो।
कोऊ कितेक कहै तुमसों तिनकी कही बातन को न पतीजियो॥