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रीतिकाल के अन्य कवि

कैधौं मोर सोर तजि गए री अनत भाजि,
कैधौं उत दादुर न बोलत हैं, ए दई!
कैधौं पिक चातक महीप काहू मारि डारे,
कैधौं बगपाँति उत अंतगति ह्वै गई?
आलम कहै, हो आली! अजहूँ न आए प्यारे,
कैधौं उत रीत विपरीत बिधि ने ठई?
मदन महीप की दुहाई फिरिबे तें रही,
जूझि गए मेघ, कैधौं बीजुरी सती भई?॥


रात के उनींदे अरसाते, मदमाते राते।
अति कजरारे दृग तेरे यों सुहात हैं।
तीखी तीखी कोरनि कोरनि लेत काढ़ें जीउ,
केते भए घायल ओ केते तलफात है॥
ज्यों ज्यों लै सलिल चख 'सेख' धोवै बार बार,
त्यों त्यों बल बुंदन के बार झुकि जात हैं।
कैबर के भालें, कैधौं नाहर नहनवाले,
लोहू के पियासे कहूँ पानी तें अघात हैं?


दाने की न पानी की न आवै सुध खाने की,
याँ गली महबूब की अराम खुसखाना है।
रोज ही से है जो राजी यार की रजाय बीच,
नाज की नजर तेज तीर का निशाना है।
सूरत चिराग रोसनाई आसनाई बीच,
बार बार बरै बलि जैसे परवाना है।
दिल से दिलासा दीजै हाल के न ख्याल हुजै,
बेखुद फकीर, वह आशिक दीवाना है॥

(७) गुरु गोविंदसिंह जी––ये सिखो के महापराक्रमी दसवें या अंतिम गुरु थे। इनका जन्म सं॰ १७२३ में और सत्यलोक-वास संवत् १७६५ में हुआ।