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हिंदी-साहित्य का इतिहास

के यहाँ विवाह के अवसर पर देवकीनंदनजी ने भाटो की तरह कुछ कवित्त पढ़ें और पुरस्कार लिया। इसपर उनके भाई-बंधुओं ने उन्हें जातिच्युत कर दिया और वे असनी के भाट नरहर कवि की कन्या के साथ अपना विवाह करके असनी में जा रहे और भाट हो गए। उन्हीं देवकीनंदन के वंश में ठाकुर के पिता ऋषिनाथ कवि हुए।

ठाकुर ने संवत् १८६१ में "सतसई वरनार्थ" नाम की "बिहारी सतसई" की एक टीका (देवकीनंदन टीका) बनाई। अतः इनका कविता-काल संवत् १८६० के इधर उधर माना जा सकता है। ये काशिराज के संबंधी काशी के नामी रईस (जिनकी हवेली अब तक प्रसिद्ध हैं) बाबू देवकीनंदन के आश्रित थे। इनका विशेष वृत्तात स्व॰ पंडित अंबिकादत्त व्यास ने अपने, "बिहारी बिहार" की भूमिका में, दिया है। ये ठाकुर भी बड़ी सरस कविता करते थे। इनके पद्य मे भाव या दृश्य का निर्वाह अबोध रूप में पाया जाता है। दो उदाहरण लीजिए––

कारे लाल करहे पलासन के पुंज तिन्हैं
अपने झकोरन झुलावन लगी है री।
ताही को ससेटी तृन-पत्रन-लपेटि धरा-
धाम तें अकास धूरि धावन लगी है री॥
ठाकुर कहत सुचि सौरभ प्रकासन भों
आछी भाँति रुचि उपजावन लगी है री।
ताती सीरी बैहर वियोग वा संयोगवारी,
आवनि बसंत की जनावन लगी है री॥


प्रान झुकामुकि भेष छपाथ कै गागर लै घर तें निकरी ती।
जानि परी न कितीक अबार है, जाय परी जहँ होरी धरी ती॥
ठाकुर दौरि परे मोंहि देखि कै, भागि बची री, बड़ी सुघरी ती।
बीर की सौं जौ किवार न देउँ तौ मैं होरिहारन हाथ परी ती॥