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हिंदी-साहित्य का इतिहास

पढ़ने की शिष्ट भाषा थी। पर साध में रहने के कारण सिद्धों की भाषा में कुछ पूरबी प्रयोग भी ( जैसे, भइले, बूड़िलि ) मिले हुए है । पुरानी हिंदी की व्यापक काव्य-भाषा का ढॉचा शौरसेनी-प्रसूत अपन्नश अर्थात् ब्रज और खड़ी बोली ( पच्छिमी हिंदी ) का था। वहीं ढाँचा हम उद्धृत, रचनाओं के-

जो, सो, मारिआ, पइठो, जाअ, किंजई, करंत, जावे ( जब तक ), ताब ( तव तक ) भइअ, कोइ, इत्यादि प्रयोग से पाते है । ये प्रयोग मागधी-प्रसूत पुरानी बँगला के नहीं; शौरसेनी-प्रसूत पुरानी पच्छिमी हिंदी के है । सिद्ध कण्हपा की रचनाओं को यदि हम ध्यानपूर्वक देखें तो एक बात साफ झलकती है । वह यह कि उनकी उपदेश की भाषा तो पुरानी टकसाली हिंदी ( काव्य-भाषा ) है, पर गीतो की भाषा पुरानी बिहारी या पूरबी बोली मिली है । यही भेद हम आगे चलकर कबीर की ‘साखी और मैनी’ ( गीत ) की भाषा में पीते है । ‘साखी की भाषा तो खड़ी बोली राजस्थानी मिश्रित सामान्य “सधुक्कड़ी' भाषा है, पर रमैनी के पदों की भाषा मे काव्य की ब्रजभाषा और कंही कहीं पूरबी बोली भी है।

सिद्धों में 'सरह' सबसे पुराने अर्थात् वि० सं० ६६० के है । अतः हिंदी काव्य-भाषा के पुराने रूप को पता हमे विक्रम की सातवी शताब्दी के अंतिम चरण-से लगता है।

(२) दूसरी बात है सांप्रदायिक प्रवृति और उसके संस्कार की परम्परा । वज्रयानी सिद्धों ने निम्न श्रेणी की प्रायः अशिक्षित जनता के बीच किस प्रकार के भावों के लिये जगह निकाली, यह दिखाया जा चुका है उन्होने बाह्य पूजा, जाति-पाति, तिर्थांटन इत्यादि के प्रति उपेक्षा-बुद्धि का प्रचार किया; रहस्यदर्शी बनकर शास्त्रज्ञ विद्वानों का तिरस्कार करने और मनमाने रूपको के द्वारा अटपटी बानी में पहेलियाँ बुझाने का रास्ता दिखाया, घट के भीतर चक्र, नाड़ियों, शून्य देश आदि मानकर साधना करने की बात फैलाई और नाद, बिंदु, सुरति, निरति’ ऐसे शब्दो की उद्धरणी करना सिखाया। यही परंपरा अपने ढंग पर नाथपंथियो ने भी जारी रखी। आगे चलकर भक्तिकाल में निगुण संत संप्रदाय किस प्रकार वेदांत के ज्ञानवाद, सूफियों के प्रेमवाद तथा