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आधुनिक-काल

दूसरी। भावावेश के कथनों में वाक्य प्रायः बहुत छोटे छोटे होते हैं और पदावली सरल बोलचाल की होती है जिसमें बहुत प्रचलित अरबी-फारसी के शब्द भी कभी, पर बहुत कम, आ जाते हैं। जहाँ किसी ऐसे प्रकृतिस्थ भाव की व्यंजना होती है जो चिंतन का अवकाश भी बीच-बीच में छोड़ता है, वहाँ की, भाषा, कुछ अधिक, साधु और गंभीर होती है; वाक्य भी कुछ लंबे होते है, पर उनका अन्वय जटिल नहीं होता। तथ्य-निरूपण या सिद्धांत कथन के भीतर संस्कृत शब्दो का कुछ अधिक मेल दिखाई पड़ता है। एक बात विशेष रूप से ध्यान देने की है। वस्तु-वर्णन में विषयानुकूल मधुर या कठोर वर्णवाले संस्कृत शब्दों की योजना की, जो प्रायः समस्त और सानुप्रास होती है, चाल सी चली आई हैं। भारत में यह प्रवृत्ति हम सामान्यतः नहीं पाते।

पं॰ प्रतापनारायण मिश्र की प्रकृति विनोदशील थी अतः उनकी भाषा बहुत ही स्वछंद गति से बोलचाल की चपलता और भावभगी लिए चलती है। हास्य-विनोद की उमंग में वह कभी कभी मर्यादा का अतिक्रमण करती, पूरबी कहावतों और, मुहावरों की बौछार भी छोड़ती चलती है। उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' के लेखो से गद्य-काव्य के पुराने ढंग की झलक, रंगीन इबारत की चमक-दमक बहुत कुछ मिलती है। बहुत से वाक्य-खंड़ो की लड़ियो से गुथे हुए उनके वाक्य अत्यंत लंबे होते थे––इतने लंबे कि उनका अन्वय कठिन होता था। पद-विन्यास में, तथा कहीं कहीं वाक्यो के बीच विरामस्थलों पर भी, अनुप्रास देख इशा और लल्लूलाल का स्मारण होता है। इस दृष्टि से देखें तो 'प्रेमघन' में पुरानी परंपरा का निर्वाह अधिक दिखाई पडता है।

पं॰ बालकृष्ण भट्ट की भाषा अधिकतर, वैसी होती थी जैसी खरी खरी सुनाने में काम में लाई जाती है। जिन लेखों में उनकी चिड़चिड़ाहट झलकती है वे विशेष मनोरंजक है। नूतन और पुरातन का वह संघर्ष-काल था इससे भट्ट जी को चिढ़ने की पर्याप्त सामग्री मिल जाया करती थी। समय के प्रतिकूल बद्धमूल विचारों को उखाड़ने और परिस्थिति के अनुकूल नए विचारों को जमने।