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हिंदी-साहित्य का इतिहास

का अभाव भी कहा जा सकता है। अभिनय द्वारा नाटकों की ओर रुचि बढ़ती है और उनका अच्छा प्रचार होता है। नाटक दृश्य काव्य है। उनका बहुत कुछ आकर्षण अभिनय पर अवलंबित रहता है। उस समय नाटक खेलनेवाली व्यवसायी पारसी कंपनियाँ थीं। वे उर्दू छोड़ हिंदी नाटक खेलने को तैयार न थीं। ऐसी दशा में नाटकों की ओर हिदी-प्रेमियों का उत्साह कैसे रह सकता था?

भारतेंदुजी, प्रतापनारायण मिश्र, बदरीनारायण चौधरी उद्योग करके अभिनय का प्रबंध किया करते थे और कभी कभी स्वयं भी पार्ट लेते थे। पं॰ शीतलाप्रसाद त्रिपाठी कृत 'जानकी मंगल नाटक' का जो धूमधाम से अभिनय हुआ था उसमें भारतेंदुजी ने पार्ट लिया था। यह अभिनय देखने काशीनरेश महाराज ईश्वरीप्रसाद नारायण सिंह भी पधारे थे और इसका विवरण ८ मई १८६८ के इंडियन मेल (Indian Mail) में प्रकाशित हुआ था। प्रतापनारायण मिश्र को अपने पिता से अभिनय के लिये मूँछ मुँड़ाने की आज्ञा माँगना प्रसिद्ध ही है।

'काश्मीरकुसुम' (राजतरंगिणी का कुछ अंश ) और 'बादशाहदर्पण' लिखकर इतिहास की पुस्तकों की ओर और जयदेव का जीवनवृत्त लिखकर जीवनचरित की पुस्तकों की ओर भी हरिश्चंद्र ध्यान ले गए पर उस समय इन विषयों को ओर लेखकों की प्रवृत्ति न दिखाई पड़ी।

पुस्तक-रचना के अतिरिक्त पत्रिकाओं में प्रकाशित अनेक प्रकार के फुटकल लेख और निबंध अनेक विषयों पर मिलते हैं, जैसे, राजनीति, समाजदशा, देश-दशा, ऋतुछटा, पर्व-त्योहार, जीवनचरित, ऐतिहासिक प्रसंग, जगत् और जीवन से संबंध रखनेवाले सामान्य विषय (जैसे आत्म-निर्भरता, मनोयोग, कल्पना)। लेखों और निबंधों की अनेकरूपता को देखते उनका वर्गीकरण किया जा सकता है। समाजदशा और देशदशा-संबधी लेख कुछ विचारात्मक पर अधिकांश में भावात्मक मिलेंगे। जीवनचरित और ऐतिहासिक प्रसंगों में इतिवृत्त के साथ भाव-व्यजना भी गुंफित पाई जायगी। ऋतु-छटा और पर्व-त्योहारों पर अलंकृत भाषा में वर्णनात्मक प्रबंध सामने आते हैं। जगत् और जीवन से संबंध रखने-वाले सामान्य विषयों के निरूपण में विरल विचार-खंड कुछ उक्ति-वैचित्र्य के साथ