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सामान्य परिचय

शैली दूसरी। भावावेश की भाषा में प्रायः वाक्य बहुत छोटे छोटे होते है और पदावली सरल बोल-चाल की होती है जिसमें बहुत प्रचलित साधारण फारसी अरबी के शब्द भी कभी कभी, पर बहुत कम, आ जाते है। 'चद्रावली नाटिका' से उद्धत यह अंश, देखिए––

"झूठे झूठे झूठे! झूठे ही नहीं विश्वासघातक। क्यों इतना छाती ठोंक और हाथ उठा-उठाकर लोगों को विश्वास दिया? आप ही सब मरते, चाहे जहन्नुम में पड़ते।...... भला क्या काम था कि इतना पचड़ा किया? किसने इस उपद्रव और जाल करने को कहा था? कुछ न होता, तुम्हीं तुम रहते, बस चैन था, केवल आनंद था। फिर क्यों यह विषमय संसार किया? बखेडिए और इतने बड़े कारखाने पर बेहयाई परले सिरे की। नाक विके, लोग झूठी कहें, अपने मारे फिरें पर वाह रे शुद्ध बेहयाई––पूरी निर्लज्जता! लाज को जूती मार के, पीट पीट के निकाल दिया है। जिस मुहल्ले में आप रहते हैं लाज की हवा भी नहीं जाती हाय एक बार भी मुँह दिखा दिया होता तो मतवाले मतवाले बनें क्यों लड़ लड़कर सिर फोड़ते? काहे को ऐसे बेशरम मिलेंगे? हुकमी बेहया हो।"

जहाँ चित्त के किसी स्थायी क्षोभ की व्यंजना है और चिंतन के लिये कुछ अवकाश है वहाँ की भाषा कुछ अधिक साधु और गंभीर तथा वयि कुछ बड़े है, पर अन्वय जलिट नहीं हैं, जैसे 'प्रेमयोगिनी' में सूत्रधार के इस भाषण में––

"क्या सारे संसार के लोग सुखी रहें और हम लोगों का परम बंधु, पिता, मित्र, पुत्र, सब भावनाओं से भावित, प्रेम की एकमात्र मूर्ति, सौजन्य का एक मात्र पात्र, भारत का एकमात्र हित, हिंदी का एकमात्र जनक, भाषा नाटकों का एकमात्र जीवनदाता, हरिश्चंद्र ही दुखी हो? (नेत्र में जल भरकर) हा सज्जनशिरोमणी! कुछ चिंता नहीं, तेरा तो बाना है कि कितना भी दुख हो उसे सुख ही मानना। x x x मित्र! तुम तो दूसरों का अपकार और अपना, उपकार दोनों भूल जाते हो, तुम्हें इनकी निंदा से क्या? इतना चित्त, क्यों क्षुब्ध करते हो? स्मरण रखो, ये कीड़े ऐसे ही रहेंगे और तुम लोकबहिष्कृत होकर इनके सिर पर पैर रख के विहार करोगे।"

तथ्य-निरूपण या वस्तु-वर्णन के समय कभी कभी उनकी भाषा में संस्कृत