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हिंदी-साहित्य का इतिहास

उसकी इच्छा के अनुकूल नहीं होते वह वास्तव में चाहे अच्छे कार्य भी हो किंतु भले प्रकार पूर्ण रीति से संपादित नहीं होते, न उनका कर्ता ही यथोचित आनंद लाभ करता है। इसी से लोगों ने कहा है कि मन शरीर-रूपी नगर का राजा हैं और स्वभाव उसका चंचल है। यदि स्वच्छंद रहे तो बहुधा कुत्सित ही मार्ग में धावसान रहता है। यदि रोका न जाय तो कुछ काल में आलस्य और अकृत्य का व्यसन उत्पन्न करके जीवन को व्यर्थ एवं अनर्थपूर्ण कर देता है।"

प्रतापनारायणजी ने फुटकल गद्यप्रबंधों के अतिरिक्त कई नाटक भी लिखे। 'कलिकौतुक रूपक' में पाखंडियों और दुराचारियों का चित्र खींचकर उनसे सावधान रहने का संकेत किया गया है। 'संगीत शाकुंतल' लावनी के ढंग पर गाने योग्य खड़ी बोली में पद्यबद्ध शकुंतला नाटक है। भारतेंदु के अनुकरण पर मिश्र जी ने 'भारतदुर्दशा' नाम का नाटक भी लिखा था। 'हठी हम्मीर रणथंभौर पर अलाउद्दीन की चढ़ाई का वृत्त लेकर लिखा गया है। 'गोसकट नाटक' और 'कलि-प्रभाव नाटक' के अतिरिक्त 'जुआरी खुआरी' नामक उनका एक प्रहसन भी है।

पं॰ बालकृष्ण भट्ट का जन्म प्रयाग में सं॰ १९०१ में और परलोकवास सं॰ १९७१ में हुआ। वे प्रयाग के 'कायस्थ-पाठशाला कालेज' में संस्कृत के अध्यापक थे।

उन्होंने संवत् १९३३ में अपना "हिंदी-प्रदीप" गद्य-साहित्य का ढर्रा निकालने के लिये ही निकाला था। सामाजिक, साहित्यिक, राजनीतिक, नैतिक सब प्रकार के छोटे छोटे गद्य प्रबंध वे अपने पत्र में तीस-बत्तीस वर्ष तक निकालते रहे। उनके लिखने का ढंग पंडित प्रतापनारायण के ढंग से मिलता जुलता है। मिश्रजी के समान भट्टजी भी स्थान-स्थान पर कहावतों का प्रयोग करते थे, पर उनका झुकाव मुहावरो की ओर कुछ अधिक रहा है। व्यंग और वक्रता उनके लेखों में भी भरी रहती हैं और वाक्य भी कुछ बड़े बड़े होते हैं। ठीक खड़ी चोली के आदर्श का निर्वाह भट्टजी ने भी नहीं किया है। पूरबी प्रयोग बराबर मिलते हैं। "समझा बुझाकर" के स्थान पर "समझाय बुझाय" वे प्रायः लिख जाते थे। उनके लिखने के ढंग से यह जान पड़ता है कि वे