पृष्ठ:हिंदी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल.pdf/४९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
४६८
हिंदी-साहित्य का इतिहास

की कल्पना करते करते 'कपिल' अर्थात् पीले पड़ गये। व्यास ने इन तीनों दार्शनिकों की दुर्गति देख मन में सोचा, कौन इस भूतनी के पीछे दौड़ता फिरे, यह संपूर्ण विश्व जिसे हम प्रत्यक्ष देख सुन सकते हैं सब कल्पना ही कल्पना, मिथ्या, नाशवान् और क्षणभंगुर है, अतएव हेय है।

आत्म-निर्भरता

इधर पचास-साठ वर्षों से अँगरेजी राज्य के अमनचैन को फ़ायदा पाय हमारे देशवाले किसी भलाई की ओर न झुके वरन् दस वर्ष की गुड़ियो का व्याह कर पहिले से ड्योढ़ी दूनी सृष्टि अलबत्ता बढ़ाने लगे। हमारे देश की जन संख्या अवश्य घटनी चाहिए। × × × आत्म निर्भरता में दृढ़, अपने कूबते-बाज़ू पर भरोसा रखनेवाला पुष्टवीर्य्य, पुष्ट-बल, भाग्यवान् एक संतान अच्छा। 'कुकर सूकर से' निकम्मे, रग रग में दास-भाव से पूर्ण परभान्यौपजीवी दस किस काम के?"

निबंधो के अतिरिक्त भट्टजी ने कई छोटे-मोटे नाटक भी लिखे है जो क्रमशः उनके 'हिंदी-प्रदीप' में छपे हैं, जैसे––कलिराज की सभा, रेल का विकट खेल, बालविवाह नाटक, चंद्रसेन नाटक। उन्होंने माइकेल मधुसूदन दत्त के 'पद्मावती' और 'शर्मिष्ठा' नामक बंगभाषा के दो नाटकों के अनुवाद भी निकाले थे।

सं॰ १९४३ में भट्टजी ने लाला श्रीनिवासदास के 'संयोगता-स्वयंवर' नाटक की 'सच्ची समालोचना' भी, और पत्रों में उसकी प्रशंसा ही प्रशंसा देखकर, की थी। उसी वर्ष उपाध्याय पं॰ बदरीनारायण चौधरी ने बहुत ही विस्तृत समालोचना अपनी पत्रिका में निकाली थी। इस दृष्टि से सम्यक् आलोचना का हिंदी में सूत्रपात करनेवाले इन्हीं दो लेखकों को समझना चाहिए।

उपाध्याय पं॰ बदरीनारायण चौधरी का जन्म मिर्जापुर के एक अभिजात ब्राह्मण-वंश में भाद्र कृष्ण ६ सं॰ १९१२ को और मृत्यु फाल्गुन शुक्ल १४ सं॰ १९७९ को हुई। उनकी हर एक बात से रईसी टपकती थी। बातचीत का ढंग उनका बहुत ही निराला और अनूठा था। कभी कभी बहुत ही सुंदर वक्रतापूर्ण वाक्य उनके मुँह से निकलते थे। लेखन-कला के उनके