पृष्ठ:हिंदी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल.pdf/४९८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
४७३
सामान्य परिचय

नाटकों पर दृष्टि रखकर लिखी गई थीं। यह स्पष्ट जान पड़ता है कि यह नाटक उन्होंने अँगरेजी नाटकों के ढंग पर लिखा था। 'रणधीर और प्रेममोहनी' नाम ही "रोमियो ऐंड जुलियट" की ओर ध्यान ले जाता है। कथा-वस्तु भी इसकी सामान्य प्रथानुसार पौराणिक या ऐतिहासिक न होकर कल्पित है। पर यह वस्तु-कल्पना मध्ययुग के राजकुमार-राजकुमारियो के क्षेत्र के भीतर ही हुई है––पाटन का राजकुमार है और सूरत की राजकुमारी। पर दृश्यों में देशकालानुसार सामाजिक परिस्थिति को ध्यान नहीं रखा गया है। कुछ दृश्य तो आजकल का समाज सामने लाते हैं, कुछ मध्ययुग का और कुछ उस प्राचीन काल का जब स्वयंवर की प्रथा प्रचलित थी। पात्रों के अनुरूप भाषा रखने के प्रयत्न में मुंशी जी की भाषा इतनी घोर उर्दू कर दी गई है कि केवल हिंदी-पढ़ा व्यक्ति एक पंक्ति भी नहीं समझ सकता। कहाँ स्वयंवर, कहाँ ये मुंशी जी!

जैसा ऊपर कहा गया है, यह नाटक अँगरेजी नाटकों के ढंग पर लिखा गया है। इसमें प्रस्तावना नहीं रखी गई है। दूसरी बात यह कि यह दुःखांत है। भारतीय रूपक-क्षेत्र में दुःखांत नाटकों का चलन न था। इसकी अधिक चर्चा का एक कारण यह भी था।

लालाजी की "संयोगता-स्वयंवर" नाटक सबसे पीछे का है। यह पृथ्वीराज द्वारा संयोगता-हरण का प्रचलित प्रवाद लेकर लिखा गया है।

श्रीनिवासदास ने "परीक्षागुरु" नाम का एक शिक्षाप्रद उपन्यास भी लिखा। वे खड़ी बोली की बोलचाल के शब्द और मुहावरे अच्छे लाते थे। उपर्युक्त चारों लेखकों में प्रतिभाशालियों को मनमौजीपन था, पर लाला श्रीनिवासदास व्यवहार में दक्ष और संसार का ऊँचा-नीचा समझने वाले पुरुष थे। अतः उनकी भाषा संयत और साफ-सुथरी तथा रचना बहुत कुछ सोद्देश्य होती थी। 'परीक्षा-गुरु' से कुछ अंश नीचे दिया जाता है––

"मुझे आपकी यह बात बिलकुल अनोखी मालूम होती है। भला, परोपकारादि शुभ कामों का परिमाण कैसे बुरा हो सकता है?" पंडित पुरुषोत्तमदास ने कहा।

"जैसे अन्न प्राणाधार है, परंतु अति भोजन से रोग उत्पन्न होता है" लाला ब्रजकिशोर