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हिंदी-साहित्य का इतिहास

और गोधूली के समय गैयों के खुरों से उड़ी धूल ऐसी गलियों में छा जाती है मानों कुहिरा गिरता हो। × × × × ऐसा सुंदर ग्राम, जिसमें शयामसुंदर स्वयं विराजमान हैं, मेरा जन्म-स्थान था।"

कवियों के पुराने प्यार की बोली से देश की दृश्यावली को सामने रखने का मूक समर्थन तो इन्होंने किया ही है, साथ ही भाव-प्रबलता से प्रेरित कल्पना के विप्लव और विक्षेप अंकित करनेवाली एक प्रकार की प्रलापशैली भी इन्होंने निकाली जिसमे रूपविधान का वैलक्षण्य प्रधान था, न कि शब्दविधान का। क्या अच्छा होता यदि इस शैली का हिंदी में स्वतंत्र रूप से विकास होता। तब तो बंग-साहित्य में प्रचलति इस शैली का शब्दप्रधान रूप, जो हिंदी पर कुछ काल से चढ़ाई कर रहा है और अब काव्यक्षेत्र का अतिक्रमण कर कभी कभी विषय-निरूपक निबंधों तक का अर्थग्रास करने दौड़ता है, शायद जगह न पाता।

बाबू तोताराम––ये जाति के कायस्थ थे। इनका जन्म सं॰ १९०४ में और मृत्यु दिसंबर १९०२ में हुई। बी॰ ए॰ पास करके ये हेडमास्टर हुए पर अंत में नौकरी छोड़कर अलीगढ़ में प्रेस खोलकर 'भारतबंधु' पत्र निकालने लगे। हिंदी को हर एक प्रकार से हितसाधन करने के लिये जब भारतेंदुजी खड़े हुए थे उस समय उनका साथ देनेवालों में ये भी थे। इन्होंने "भाषासंवर्द्धिनी" नाम की एक सभा स्थापित की थी। ये हरिश्चंद्र-चंद्रिका के लेखको में से थे। उसमें 'कीर्तिकेतु' नाम का इनका एक नाटक भी निकला था। ये जब तक रहे, हिंदी के प्रचार और उन्नति में लगे रहे। इन्होंने कई पुस्तकें लिखकर अपनी सभा के सहायतार्थ अर्पित की थीं––जैसे "केटोकृतात नाटक" (अँगरेजी का अनुवाद), स्त्रीसुबोधिनी। भाषा इनकी साधारण अर्थात् विशेषतारहित है। इनके 'कीर्तिकेतु' नाटक का एक भाषण देखिए––

"यह कौन नहीं जानता? परंतु इस नीच संसार के आगे कीर्तिकेतु बिचारे की क्या चलती है? जो पराधीन होने ही से प्रसन्न रहता है और सिसुमार की सरन जा गिरने का जिसे चाव है, हमारा पिता अत्रिपुर में बैठा हुआ वृथा रमावती नगरी की नाम मात्र प्रतिष्ठा बनाए है। नवपुर की निर्बल सेना और एक रीती थोथी, सभी जो निष्फल बुद्धों से शेष रह गई है, वह उसके संग है। हे ईश्वर!"