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हिंदी-साहित्य का इतिहास

ऐसी तस्वीर खैंची कि मैं हैरान हो गया। मैंने एक चिट्ठी लाहौर नगर के 'ट्रीव्यून' नामी समाचार पत्र को लिखी। उस चिट्ठी के छपते ही मेरे पास बहुत से लोगों ने चिट्ठियाँ भेजीं जिनसे प्रकाशित हुआ कि पुलिस का जुल्म उससे भी ज्यादा है जितना मैंने सुना था। अब मैंने पक्का इरादा कर लिया है कि जब तक हिंदुस्तान की पुलिस वैसी ही न हो जावे जैसे कि हमारे इँगलिस्तान में है, मैं इस बात का पीछा न छोड़ूँगा।"

भारतेंदु हरिश्चंद्र को एक चिट्ठी पिन्काट साहब ने ब्रजभाषा पद्य में लिखी थी जो नीचे दी जाती है––

"वैस-बस-अवतंस, श्रीबाबू हरिचंद जू।
छीर नीर कलहस, टुक उत्तर लिखि दैव मोहि॥

पर उपकार में उदार अवनी में एक, भाषत अनेक यह राजा हरिचंद है। विभव बड़ाई वपु वसन विलास लखि कहत यहाँ के लोग बाबू हरिचंद है। चंद वैसो अमिय अनदकर आरत को कहत कविंद यह भारत को चंद हैं। कैसे अब देखैं, को बतावै, कहाँ पावैं? होय, कैसे वहाँ आवैं हम कोई मतिमंद हैं।

श्रीयुत सकल-कविंद-कुल-नुत बाबू हरिचंद।
भारत-हृदय-सतार-तभ उदय रहो जनु चंद॥"


प्रचार-कार्य

भारतेंदु के समय से साहित्य-निर्माण का कार्य तो धूम-धाम से चल पड़ा पर उस साहित्य के सम्यक् प्रचार में कई प्रकार की बाधाएँ थीं। अदालतों की भाषा बहुत पहले से उर्दू चली आ रही थी इससे अधिकतर बालकों को अँगरेजी के साथ या अकेले उर्दू की ही शिक्षा दी जाती थी। शिक्षा का उद्देश्य अधिकतर सरकारी नौकरियों के योग्य बनाना ही समझा जाता रहा है। इससे चारों ओर उर्दू पढ़े-लिखे लोग ही दिखाई पड़ते थे। ऐसी अवस्था में साहित्य-निर्माण के साथ हिंदी के प्रचार का उद्योग भी बराबर चलता रहा। स्वयं बाबू हरिश्चंद्र को हिंदी भाषा और नागरी अक्षरों की उपयोगिता समझाने के लिये बहुत से नगरों में व्याख्यान देने के लिये जाना पड़ता था। उन्होंने इस संबंध में कई पैंफ्लेट भी लिखे। हिंदी-प्रचार के लिये बलिया में बड़ी भारी सभा हुई थी जिसमें भारतेंदु का बड़ा मार्मिक व्याख्यान हुआ था। वे जहाँ जाते अपना यह मूल मंत्र अवश्य सुनाते थे––