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हिंदी-साहित्य का इतिहास

शब्द तथा 'सार्वजनिक कार्यों में भाग लेना' ऐसे फिकरे पाए जायँगे तो, काफी हँसनेवाले और नाक–भौं सुकोड़नेवाले मिलेंगे। इससे इस जमीन पर बहुत समझ-बूझकर पैर रखना होगा।

ऐतिहासिक उपन्यास जिस ढंग से लिखना चाहिए, यह प्रसिद्ध पुरातत्वविद् श्रीराखालदास बंद्योपाध्याय ने अपने 'करुणा', 'शशांक' और 'धर्मपाल' नामक उपन्यासों द्वारा अच्छी तरह दिखा दिया। प्रथम दो के अनुवाद-हिंदी में हो गए हैं। खेद है कि इस समीचीन पद्धति पर प्राचीन हिंदू साम्राज्य-काल के भीतर की कथा-वस्तु लेकर मौलिक उपन्यास न लिखे गए। नाटक के क्षेत्र में अलबत स्वर्गीय जयशंकर प्रसादजी ने इस पद्धति पर कई सुंदर ऐतिहासिक नाटक लिखे। इसी पद्धति पर उपन्यास लिखने का अनुरोध हमने उनसे कई बार किया था जिसके अनुसार शुगकाल (पुष्यमित्र, अग्निमित्र का समय) का चित्र उपस्थित करनेवाला एक बड़ा मनोहर उपन्यास लिखने में उन्होंने हाथ भी लगाया था, पर साहित्य के दुर्भाग्य से उसे अधूरा छोड़कर ही वे चल बसे।

वर्तमानकाल में ऐतिहासिक उपन्यास के क्षेत्र में केवल बा॰ वृंदावनलाल वर्मा दिखाई दे रहे हैं। उन्होंने भारतीय इतिहास के मध्ययुग के प्रारंभ में बुंदेलखंड की स्थिति लेकर 'गढ़कुंडार' और 'विराटा की पद्मिनी' नामक दो बड़े सुदर उपन्यास लिखे हैं। विराटा की पद्मिनी की कल्पना तो अत्यंत रमणीय है।

उपन्यासों के भीतर लंबे-लंबे दृश्य-वर्णनो तथा धाराप्रवाह भाव-व्यंजनापूर्ण भाषण की प्रथा जो पहले थी वह योरप में बहुत कुछ छाँट दी गई, अर्थात् वहाँ उपन्यासों से काव्य का रंग, बहुत कुछ हटा दिया गया। यह बात वहाँ नाटक और उपन्यास के क्षेत्र मे 'यथातथ्यवाद' की प्रवृत्ति के साथ हुई। इससे उपन्यास-की अपनी निज की विशिष्टता निखरकर झलकी, इसमें कोई संदेह नहीं। वह विशिष्टता यह है कि घटनाएँ और पात्रों के क्रियाकलाप ही भावों को बहुत-कुछ व्यक्त कर दे, पात्रों के प्रगल्भ भाषण की उतनी अपेक्षा न रहे! पात्रों के थोड़े से मार्मिक शब्द ही हृदय पर पड़नेवाले प्रभाव को पूर्ण कर दें। इस तृतीय उत्थान का आरंभ होते होते हमारे हिंदी-साहित्य में उपन्यास की