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गद्य-साहित्य की वर्त्तमान गति

उन्हीं को बहुत से लोग सब कुछ समझने लगे। जब कोई बात हद से बाहर जाने लगती है तब प्रतिवर्तन (Reaction) का समय आता है। योरप में अनेक प्रकार के वादों की उत्पत्ति प्रतिवर्तन के रूप में ही हुआ करती है। अतः हमें सामंजस्य-बुद्धि से काम लेकर अपना स्वतंत्र मार्ग निकालना चाहिए।

वेल बूटे और नक्काशी के लक्ष्य के समान काव्य का भी लक्ष्य सौंदर्यविधान लगातार कहते रहने से काव्य रचना पर जो प्रभाव पड़ा है, उसका उल्लेख हो चुका है और यह भी कहा जा चुका है कि यह सब काव्य के साथ 'कला' शब्द लगने के कारण हुआ हैं। हमारे यहाँ काव्य की गिनती ६४ कलाओं के भीतर नहीं की गई है। यहाँ इतना और सूचित करना आवश्यक जान पड़ता है कि सौंदर्य की भावना को रूप देने में मनोविज्ञान के क्षेत्र से आए हुए उस सिद्धांत का भी असर पड़ा है जिसके अनुसार अतस्सज्ञा में निहित अतृप्त काम वासना ही कला-निर्माण की प्रेरणा करनेवाली अंतर्वृत्ति है। योरप में चित्रकारी, मूर्तिकारी, नक्काशी, बेल-बूटे आदि के समान कविता भी 'ललित कलाओं' के भीतर दाखिल हुई, अतः धीरे धीरे उसका लक्ष्य भी सौंदर्य-विधान ही ठहराया गया। जब कि यह सौंदर्य भावना काम वासना द्वारा प्रेरित ठहराई गई तब पुरुष कवि के लिये यह स्वाभाविक ही ठहरा कि उसकी सारी सौंदर्य-भावना स्त्रीमयी हो अर्थात् प्रकृति के अपार क्षेत्र में जो कुछ सुंदर दिखाई पड़े उसकी भावना स्त्री के रूप-सौंदर्य के भिन्न-भिन्न अंग लाकर ही की जाय। "अरुणोदय की छटा का अनुभव कामिनी के कपोलो पर दौड़ी हुई लज्जा की ललाई लाकर किया जाय; राका रजनी की सुषमा का अनुभव सुंदरी के उज्ज्वल वस्त्र या शुभ्र हास द्वारा किया जाय आकाश में फैलती हुई कादंबिनी तब तक सुंदर न लगे जब तक उस पर स्त्री के मुक्त कुंतल का आरोप न हो। आजकल तो स्त्री-कवियों की कमी नहीं है। उन्हें अब पुरुष कवियों का दीन अनुकरण न कर अपनी रचनाओं में क्षितिज पर उठती हुई मेघमाला को दाढ़ी-मूछ के रूप में देखना चाहिए।

काव्यरचना और काव्यचर्चा दोनो में इधर 'स्वप्न' और 'मंद' का प्रधान स्थान रहने लगा है। ये दोनों शब्द काव्य के भीतर प्राचीन समय में धर्म संप्रदायों से आए। लोगो की धारण थी कि संत या सिद्ध लोगों को बहुत