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पुरानी धारा

गढंत के शब्दों का प्रयोग था। उन्होने ऐसे शब्दों को भरसक अपनी कविता से दूर रखा और अपने रसीले सवैयों में जहाँ तक हो सका, बोलचाल की ब्रजभाषा का व्यवहार किया। इसी से उनके जीवनकाल में ही उनके सवैये चारों ओर सुनाई देने लगे।

भारतेंदुजी ने कविसमाज भी स्थापित किए थे जिनमें समस्यापूर्तियाँ बराबर हुआ करती थीं। दूर दूर से कवि लोग आकर उसमें सम्मिलित हुआ करते थे। पंडित अंबिकादत्त व्यास ने अपनी प्रतिभा का चमत्कार पहले पहल ऐसे ही कवि-समाज के बीच समस्यापूर्ति करके दिखाया था। भारतेंदुजी के शृंगार-रस के कवित्त सवैए बड़े ही सरस और मर्मस्पर्शी होते थे। "पिय प्यारे तिहारे निहारे बिना दुखिया अँखियाँ नहिं मानति है", "मरेहू पै आँखै ये खुली ही रहि जायँगी" आदि उक्तियों का रसिक-समाज में बड़ा आदर रहा। उनके शृंगाररस के कवित्त-सवैयों का संग्रह "प्रेममाधुरी" में मिलेगा। कवित्त-सवैयों से बहुत अधिक भक्ति और शृंगार के पद और गाने उन्होंने बनाए जो "प्रेमफुलवारी", "प्रेममालिका", "प्रेमप्रलाप" आदि पुस्तकों में संगृहीत हैं। उनकी अधिकतर कविता कृष्णभक्त कवियों के अनुकरण पर रचे पदों के रूप में ही है।

पंडित प्रतापनारायणजी भी समस्यापूर्ति और पुराने ढंग की शृंगारी कविता बहुत अच्छी करते थे। कानपुर के "रसिक-समाज" में वे बड़े उत्साह से अपनी पूर्तियाँ सुनाया करते थे। देखिए "पपीहा जब पूछिहै पोव कहाँ" की कैसी अच्छी पूर्ति उन्होंने की थी––

बनि बैठी है मान की मूरति सो, मुख खोलत बोलै न 'नाहीं' न 'हाँ'।
तुमही मनुहारि कै हरि परे, सखियान की कौन चलाई तहाँ॥
बरषा है 'प्रतापजू' धीर धरौ, अबलौ मन को समझायो जहाँ।
यह ब्यारि तवै बदलेगी कछू पपिहा जब पूछिहै "पीव कहाँ?"

प्रतापनारायणजी कैसे मनमौजी आदमी थे, यह कहा जा चुका है। लावनीबाजों के बीच बैठकर वे लावनियाँ बना बनाकर भी गाया करते थे।

उपाध्याय बदरीनारायण (प्रेमघनजी) भी इस प्रकार की पुरानी कविता