साधना और तपस्या के लिये कैलास-मानसरोवर की ओर जाते हैं जहाँ अकाशवाणी होती है कि विक्रम की बीसवीं शताब्दी में जब 'पश्चिमी शासन' होगा तब उन्नति का आयोजन होगा। 'अमल्तास' नाम की छोटी सी कविता में कवि ने अपने प्रकृति-निरीक्षण का भी परिचय दिया है। ग्रीष्म में जब वनस्थली के सारे पेड़-पौधे झुलसे से रहते हैं और कहीं प्रफुल्लता नहीं दिखाई देती है, उस समय अमलतास चारों ओर फूलकर अपनी पीत प्रभा फैला देता है। इससे कवि भक्ति के महत्व का संकेत ग्रहण करता हैं-
देख तव वैभव, द्रुमकुल-संत! विचारा उसका सुखद निदान।
करे जो विषम काल को मंद, गया उस सामग्री पर ध्यान॥
रँगा निज प्रभु ऋतुपति के रंग, द्रुमों में अमलतास तू भक्त।
इसी कारण निदाघ प्रतिकूल, दहन में तेरे रहा अशक्त॥
'पूर्ण' जी की कविताओं का संग्रह 'पूर्ण-संग्रह' के नाम से प्रकाशित हो चुका है। उनकी खड़ी बोली की रचना के कुछ उद्धरण दिए जाते हैं-
नंदनवन का सुना नहीं है किसने नाम,
मिलता है जिसमें देवों को भी आराम।
उसके भी बासी सुखरासी, उग्र हुआ यदि उनका भाग।
आकर के इस कुसुमाकर में करते हैं नदन-रुचि त्याग॥
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है उत्तर में कोट शैल, सम तुग विशाल,
विमल सघन हिम-वलित ललित धवलित सब काल॥
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हे नर दक्षिण! इसके दक्षिण, पश्चिम, पूर्व
है अपार जल से परिपूरित कोश अपूर्व।
पवन देवता गगन-पंथ से सुघन-घटों में लाकर नीर,
सींचा करते हैं यह उपवन करके सदा कृपा गंभीर॥
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