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वीरगाथा

क्या ऐसा जान-बूझकर किया है अथवा धोखे से या भ्रम में पड़कर। ऊपर जो दोहा उद्धृत किया गया है, उसमें 'अनंद' के स्थान पर कुछ लोग ‘अनिंद’ पाठ का होना अधिक उपयुक्त मानते हैं। इसी रासों में एक दोहा यह भी मिलता है——

एकादस सै पंचदह विक्रम जिम ध्रमसुत्त।
त्रतिय साक प्रथिराज कौ लष्यौ विप्र गुन गुत्त॥

इससे भी नौ के गुप्त करने का अर्थ निकाला गया है; पर कितने में से नौ कम करने से यह तीसरा शक बनता है, यह नहीं कहा है दूसरी बात यह कि 'गुन गुत्त' ब्राह्मण का नाम (गुण गुप्त) प्रतीत होता है।

बात संवत् ही तक नहीं है। इतिहास-विरुद्ध कल्पित घटनाएँ जो भरी पड़ी हैं उनके लिये क्या कहा जा सकता है? माना कि रासो इतिहास नहीं हैं, काव्य-ग्रंथ है। पर काव्य-ग्रंथों में सत्य घटनाओं में बिना किसी प्रयोजन के उलट-फेर नहीं किया जाता। जयानक का पृथ्वीराज-विजय भी तो काव्य-ग्रंथ ही है; फिर उसमें क्यों घटनाएँ और नाम ठीक ठीक हैं? इस संबंध में इसके अतिरिक्त और कुछ कहने की जगह नहीं कि यह पूरा ग्रंथ वास्तव में जाली है। यह हो सकता है कि इसमें इधर उधर कुछ पद्य चंद के भी बिखरे हों, पर उनका पता लगना असंभव है। यदि यह ग्रंथ किसी समसामयिक कवि का रचा होता और इसमें कुछ थोड़े से अंश ही पीछे से मिले होते तो कुछ घटनाएँ और कुछ संवत तो ठीक होते।

रहा यह प्रश्न कि पृथ्वीराज की सभा में चंद, नाम का कोई कवि था या नहीं। पृथ्वीराज-विजय के कर्त्ता जयानक ने पृथ्वीराज के मुख्य भाट या बंदिराज का नाम “पृथ्वी भट्ट” लिखा है, चंद का उसने कहीं नाम नहीं लिया है, पृथ्वीराज-विजय के पांचवे सर्ग में यह श्लोक आया है——

तनयश्च द्रराजस्य चंद्रराज इवाभवत्।
संग्रह यस्मुवृत्ताना सुवृत्तानामिव व्याधात्॥

इसमें यमक के द्वारा जिस चंद्रराज कवि का संकेत है वह रायबहादुर श्रीयुत पं० गौरीशंकर हीराचंद ओझा के अनुसार 'चंद्रक' कवि है जिसका उल्लेख काश्मीरी कवि क्षेमेंद्र ने भी किया है। इस अवस्था में यही कहा जा सकता है कि 'चंदबरदाई' नाम का यदि कोई कवि था तो वह या तो पृथ्वीराज की सभा में न रहा