पृष्ठ:हिंदी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल.pdf/६६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
६४०
हिंदी-साहित्य का इतिहास

जाता है जिस प्रकार उर्दू के छंदों में मात्रिक छंदों में तो कोई अड़चन ही नही है। प्रचलित मात्रिक छंदों के अतिरिक्त कविजन इच्छानुसार नए नए छंदों का विधान भी बहुत अच्छी तरह कर सकते है।

खड़ी बोली की कविताओं की उत्तरोत्तर गति की ओर दृष्टिपात करने से यह पता चल जाता है कि किस प्रकार ऊपर लिखी बातों की ओर लोगो का ध्यान क्रमशः गया हैं और जा रहा है। बाबू मैथिलीशरण गुप्त की कविताओं में चलती हुई खड़ी बोली का परिमार्जित और सुव्यवस्थित रूप गीतिका आदि हिंदी के प्रचलित छंदों में तथा नए 'गड़े हुए छदों में पूर्णतया देखने में आया। ठाकुर गोपालशरणसिंहजी कवित्तों और सवैयों में खड़ी बोली का बहुत ही मँजा हुआ रूप सामने ला रहे हैं। उनकी रचनाओं को देखकर खड़ी बोली के मँज जाने की पूरी आशा होती है।

खड़ी बोली का पूर्ण सौष्ठव के साथ मँजना तभी कहा जायगा जब कि पद्यों में उसकी अपनी गतिविधि का पूरा समावेश हो और कुछ दूर तक चलनेवाले वाक्य सफाई के साथ बैठें। भाषा का इस रूप में परिमार्जन उन्हीं के द्वारा हो सकता है जिनका हिंदी पर पूरा अधिकार हैं, जिन्हें उसकी प्रकृति की पूरी परख है। पर जिस प्रकार बाबू मैथिलीशरण गुप्त और ठाकुर गोपालशरणसिंह ऐसे कवियों की लेखनी से खड़ी बोली को मँजते देख आशा का पूर्ण संचार होता है उसी प्रकार कुछ ऐसे लोगों को, जिन्होंने अध्ययन या शिष्ट-समागम द्वारा भाषा, पर पूरा अधिकार नहीं प्राप्त किया है, संस्कृत, की विकीर्ण पदावली के भरोसे पर या अँगरेजी पद्यों के वाक्यखंडो के शब्दानुसार जोड़कर, हिंदी कविता के नए मैदान में उतरते देख आशंका भी होती हैं। ऐसे लोग हिंदी जानने या उसका अभ्यास करने की जरूरत नहीं समझते। पर हिंदी भी एक भाषा है, जो आते आते आती है। भाषा बिना अच्छी तरह जाने वाक्यविन्यास, मुहावरे आदि कैसे ठीक हो सकते हैं––

नए नए छंदों के व्यवहार और तुक के, बंधन के त्याग की सलाह द्विवेदीजी ने बहुत पहले दी थी। उन्होंने कहा था कि "तुले हुए शब्दों में कविता करने और तुक, अनुप्रास आदि ढूँढ़ने से कवियों के विचार-स्वातत्र्य में बाधा आती है।"