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नई धारा

तब ज्वाला या प्रेम-वेदना की अतिरंजित और दूरारूद भावना ही––जो शृंगार की पुरानी रूढ़ि है––रह जाती है। कहने का तात्पर्य यह कि वेदना की कोई एक निर्दिष्ट भूमि न होने से सारी पुस्तक का कोई एक समन्वित प्रभाव नहीं निष्पन्न होता है।

पर अलग अलग लेने पर उक्तियों के भीतर बड़ी ही रंजन-कारिणी कल्पना व्यंजक चित्रों की बड़ा ही अनूठा विन्यास, भावनाओं की अत्यंत सुकुमार योजना मिलती है। प्रसाद जी की यह पहली काव्य-रचना है जिसने बहुत लोगों को आकर्षित किया। अभिव्यंजना की प्रगल्भता और विचित्रता के भीतर प्रेमवेदना की दिव्य विभूति का, विश्व में उसके मंगलमय प्रभाव का, सुख और दुःख दोनों को अपनाने की उसकी अपार शक्ति का और उसकी छाया में सौंदर्य और मंगल के संगम का भी आभास पाया जाता है। 'नियतिवाद' और 'दुःखवाद' का विषण्ण स्वर भी सुनाई पड़ता है। इस चेतना को दूर हटाकर मद-तंद्रा, स्वप्न और असंज्ञा की दशा का आह्वान रहस्यवाद की एक स्वीकृत विधि है। इस विधि का पालन 'आंसू' से लेकर 'कामायनी' तक हुआ है। अपने ही लिये नहीं, उजाले में हाथ-पैर मारनेवाली 'चिर दग्ध दुखी वसुधा' के लिये भी यही नींद लानेवाली दवा लेकर आने को कवि निशा से कहता है––

चिर दग्ध दुखी यह वसुधा आलोक माँगती, तब भी,
तुम तुहिन बरस दो कन कन, यह पगली सोय अब भी।

चेतना की शांति या विस्मृति की दशा में ही 'कल्याण की वर्षा' होती है, मिलन-सुख प्राप्त होता है। अतः उसके लिये रात्रि की भावना को बढ़ाकर प्रसाद जी महारात्रि तक ले गए हैं, जो सृष्टि और प्रलय का संधि-काल है, जिसमें सारे नाम-रूपों को लय हो जाता है––

चैतना-लहर न उठेगी जीवन-समुद्र थिर होगा,
संध्या हो, सर्ग प्रलय की विच्छेद मिलन फिर होगा।

'आंसू' के उपरांत दूसरी रचना 'लहर' है, जो कई प्रकार की कविताओं का संग्रह है। 'लहर' पर एक छोटी-सी कविता सबसे पहले दी गई है। इसी से समूचे