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सामान्य परिचय

जयदेवजी के कृष्ण-प्रेम-संगीत की गूँज चली आ रही थी जिसके सुर में मिथिला के कोकिल (विद्यापति) ने अपना सुर मिलाया। उत्तर या मध्यभारत में एक ओर तो ईसा की १५ वीं शताब्दी में रामानुजाचार्य की शिष्य-परपरा में स्वामी रामानंदजी हुए जिन्होंने विष्णु के अवतार राम की उपासना पर जोर दिया और एक बड़ा भारी संप्रदाय खड़ा किया; दूसरी ओर वल्लभाचार्यजी ने प्रेममूर्ति कृष्ण को लेकर जनता को रसमग्न किया। इस प्रकार रामोपासक और कृष्णोपासक भक्तों की परंपराएँ चलीं जिनमें आगे चलकर हिंदी काव्य को प्रौढ़ता पर पहुँचाने वाले जगमगाते रत्नों का विकास हुआ। इन भक्तों ने ब्रह्म के 'सत्' और 'आनंद' स्वरूप का साक्षात्कार राम और कृष्ण के रूप में इस बाह्य जगत् के व्यक्त क्षेत्र में किया।

एक ओर तो प्राचीन सगुणोपासना का यह काव्यक्षेत्र तैयार हुआ, दूसरी ओर मुसलमानों के बस जाने से देश में जो नई परिस्थिति उत्पन्न हुई उसकी दृष्टि से हिंदू मुसलमान दोनों के लिये एक सामान्य भक्तिमार्ग का विकास भी होने लगा। उसके विकास के लिये किस प्रकार वीरगाथा काल में ही सिद्धों और नाथ-पंथी योगियों के द्वारा मार्ग निकाला जा चुका था, यह दिखाया जा चुका है[१]। बज्रयान के अनुयायी अधिकतर नीची जाति के थे अतः जाति-पाँति की व्यवस्था से उनका असंतोष स्वाभाविक था। नाथ-संप्रदाय में भी शास्त्रज्ञ विद्वान् नहीं आते थे। इस संप्रदाय के कनफटे रमते योगी घट के भीतर के चक्रों, सहस्रदल कमल, इला-पिंगला नाड़ियों इत्यादि की ओर संकेत करने वाली रहस्यमयी बानियाँ सुनाकर और करामात दिखाकर अपनी सिद्‌धाई की धाक सामान्य जनता पर जमाए हुए थे। वे लोगों को ऐसी ऐसी बाते सुनाते आ रहे थे कि वेद-शास्त्र पढ़ने से क्या होता है, बाहरी पूजा-अर्चा की विधियाँ व्यर्थ हैं, ईश्वर तो प्रत्येक के घट के भीतर है, अंतर्मुख साधनाओं से ही वह प्राप्त हो सकता है, हिंदू-मुसलमान दोनों एक है, दोनों के लिये शुद्ध साधना का मार्ग भी एक ही है, जाति पाँति के भेद व्यर्थ


  1. देखो पृ॰ १५, १६ तथा १८ (पहला पैरा)।