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लिखने की स्वतन्त्रता प्राप्त है। इन लोगों का नाम हिन्दी लिपि में उसी प्रकार लिखा गया है, जिस प्रकार वे अंग्रेजी में लिखते हैं।

विदेशी लोग जिनके लिये यह ग्रन्थ लिखा गया है, हिन्दी नामों को ठीक-ठीक उच्चारण कर सकें, इसलिये नामों के पद विभाजन की दूसरी पद्धति स्वीकार की गई है। जहाँ प्रत्येक पद के अनन्तर रुका जा सके, दो पदों के बीच बिन्दु दे दिया गया है, जो अंग्रेजी के पूर्ण विराम से पर्याप्त बड़ा है। यथा——देओकी. नन्दन, सुकल।

प्रस्तावना में इन दोनों बातों पर लेखक ने विचार किया है।

(३) हिन्दी में नाम देने के अनन्तर उसको रोमन लिपि में भी दिया गया है और यदि नाम के साथ कोई अतिरिक्त अंश भी जुड़ा हुआ है, तो उसका अनुवाद कर दिया गया है, जैसे पुष्य कवि को ‘द पोयट पुष्य' लिखा गया है। गोसाई तुलसीदास के 'गोसाई' का अनुवाद 'होली मास्टर' किया गया है। इस ग्रंथ के हिन्दी अनुवाद में न तो दो बार नाम देने की आवश्यकता है। (एक बार नागरी लिपि में, दूसरी बार रोमन लिपि में) और न तो नामों के बीच अंग्रेजी का बृहत् पूर्ण विराम देने की, क्योंकि इन दोनों में से किसी की कोई उपयोगिता हम भारतीयों के लिये नहीं हैं। विदेशियों के लिये तो ये दोनों बातें आवश्यक थीं।

(४) नाम के साथ साथ पिता का नाम, स्थान का नाम और समय एक साथ दे दिये गये हैं, जैसे वे नाम के ही अंग हों। यह सब बिना किसी क्रिया का सहारा लिये हुये किया गया है। ग्रियर्सन ने यह पद्धति सरोज से अपनाई है।

(५) इसके पश्चात् दूसरे अनुच्छेद में उन संग्रहों का संक्षिप्त नाम दे दिया गया है, जिनमें उस कवि की रचनायें संकलित हैं।

(६) इस प्रकार संग्रह नाम दे देने के अनन्तर उपलब्ध इतिवृत्त दिया गया है। यही क्रम सरोज का भी है।

(७) किसी कवि के इतिवृत्त में यदि किसी अन्य कवि का उल्लेख आ गया है, तो उसकी भी क्रम संख्या सुविधा के लिये नाम के आगे कोष्टक में दे दी गई है।

सरोज का आभार

ग्रियर्सन के ग्रन्थ को ठीक ठीक समझने के लिये उनके द्वारा प्रयुक्त कुछ अंग्रेजी शब्दों का ठीक ठीक हिन्दी अर्थ जान लेना आवश्यक है, नहीं तो