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अध्याय ११
महारानी विक्टोरिया के शासन में हिंदुस्तान
[१८५७-१८८७]

यह अध्याय इस ग्रंथ के वास्तविक ऐतिहासिक अंश का उपसंहार प्रस्तुत करता है। यह पूर्णतया 'महारानी का भारत' युग का वर्णन करता है, जो आंतरिक अशांतियों से मुक्त है, ज्ञान प्रसार और ज्ञान प्राप्ति के लिए जिसमें हर प्रकार का प्रोत्साहन दिया गया है। इसका एक परिणाम यह हुआ है कि मुद्रण कला का पूर्ण और विस्तृत प्रसार हुआ है। लखनऊ, बनारस और पटना में बड़े-बड़े मुद्रणालय स्थापित हो गए हैं, जहाँ से पुरानी और नई, अच्छी और बुरी, सभी प्रकार की छपी पुस्तकों की बाढ़ सी आ गई है। साथ ही साथ हिंदुस्तान के प्रायः प्रत्येक भाग में छोटे-छोटे छापाखाने कुकुरमुत्तों की भाँति बढ़ गए हैं, और आज शायद ही कोई महत्व का कसबा होगा, जहाँ एक या दो प्रेस न हों। कुछ भी रुपये खर्च कर हर एक लिक्खाड़ अब अपनी कृतियों को लीथो या टाइप में छपा सकता है, और अनेक बार वह अपनी शक्ति और अवसर का उपयोग कर भी लेता है।

जिस युग की समीक्षा हम कर रहे हैं, भाषा प्रेसों का प्रादुर्भाव उसकी प्रमुख विशेषता है। सैकड़ों पृष्ठ क्षणिक अस्तित्व में आए और शीघ्र ही अपनी स्वाभाविक मृत्यु पा गए। उनमें से कुछ ही बच बचाकर विनाश के सामान्य नियम के अपवाद रूप में हम तक पहुँच पाए हैं। यहाँ भारतीय देशी भाषा के समाचार पत्रों के स्वर की ओर संकेत करने का उपयुक्त स्थान नहीं है। मैं यहाँ इसकी ओर ध्यान भर आकर्षित कर दे रहा हूँ और जान बूझकर इस चर्चा को बचा रहा हूँ। यहाँ इतना अवश्य कह देना चाहता हूँ कि बँगला पत्रकारिता को कलंकित करने वाले राजद्रोही और कटुभाषी समसामयिकों की तुलना में, हिंदी समाचार-पत्र नियमतः और सामान्यतः कहीं अधिक अच्छे हैं।

इतने वृहत साहित्य को पूर्णतया और पूर्ण रूप में वर्णित करना मेरे लिए अंत्यन्त कठिन है। मैंने कुछ ऐसे नाम चुन लिए हैं, जो मुझे चुनने के योग्य समझ पड़े, और इस चयन को भी मैं बहुत संतोषजनक नहीं समझता। इस