पृष्ठ:हिंदी साहित्य का प्रथम इतिहास.pdf/५०

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प्रस्तावना

१८८६ ई० में वियना में हुए प्राच्य-विद्याविशारदों की अन्तर्राष्ट्रीय सभा के अधिवेशन में, तुलसीदास को विशेषरूप से ध्यान में रखते हुए, हिन्दुस्तान के मध्यकालीन भाषा साहित्य पर एक लेख पढ़ने का सौभाग्य मुझे मिला था। इसकी तैयारी में उत्तरी हिन्दुस्तान के सम्पूर्ण भाषा साहित्य पर मुझे टिप्पणी प्रस्तुत करनी पड़ी, जिसको मैंने कई वर्षों में एकत्र किया था, यद्यपि उक्त निबन्ध में सत्रहवीं शताब्दी के पूर्व लिखित साहित्य का ही एक अंश काम में लाया गया है।

जिस दत्तचित्तता के साथ उक्त लेख सुना गया, उससे प्रोत्साहित होकर, मैंने इस ग्रन्थ में प्रारम्भिक काल से लेकर आज तक के हिन्दुस्तात के भाषा साहित्य की सम्पूर्ण रूपरेखा प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। भाषा साहित्य के उन समस्त लेखकों की सूची मात्र होने के अतिरिक्त यह ग्रन्थ और कुछ होने का दावा नहीं करता, जिनका नाम मैं एकत्र कर सका हूँ और जो संख्या में ९५२ है, तथा जिनमें से कुछ ७० का ही उल्लेख गार्सा द तासी ने अपने 'हिस्त्वायर द ला लितरेत्योर हिन्दुई एं हिन्दुस्तानी' में इसके पहले किया है।

ध्यान देने की बात है कि मैं आधुनिक भाषा साहित्य का ही विवरण प्रस्तुत करने जा रहा हूँ। अतः मैं संस्कृत में ग्रन्थ रस्चना करने वाले लेखकों का विवरण नहीं दे रहा हूँ, प्राकृत में लिखी पुस्तकों को भी विचार के बाहर रख रहा हूँ। भले ही प्राकृत कभी बोलचाल की भाषा रही हो, पर आधुनिक भाषा के अन्तर्गत नहीं आती। मैं न तो अरबी फारसी के भारतीय लेखकों का उल्लेख कर रहा हूँ, और न तो विदेश से लाई गई साहित्यिक उर्दू के लेखकों का ही। और मैंने इन अन्तिम को, उर्दू वालों को, अपने इस विचार क्षेत्र से जान बूझकर वहिष्कृत कर दिया है, क्योंकि इन पर पहले ही गार्सो द तासी ने पूर्णरूप से विचार कर लिया है। यहाँ मैं यह और कह देना चाहता हूँ कि हिन्दुस्तान से मेरा अभिप्राय राजपूताना और गंगा जमुना की घाटी से है। इस शब्द के भीतर मैं पंजाब और बंगाल के निचले हिस्सों को नहीं सम्मिलित कर रहा हूँ। देशी भाषाएँ जिनको यहाँ अन्तर्भूत किया गया है, सामान्यतया तीन कही जा सकती हैं——मारवाड़ी, हिन्दी और