पृष्ठ:हिंदी साहित्य का प्रथम इतिहास.pdf/६०

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है, अनेक स्थलों पर अधम कोटि के तांत्रिक शिव-साधकों के अनुरूप ही पतित हो गई है। अपने सर्वश्रेष्ठ रूप में भी कृष्ण काव्य रामानंद के उपदेशों के उदात्त तत्वों से रहित है। आत्म-विस्मृति ही नहीं, सर्व-विस्मृति उत्पन्न करने वाला, उस प्रेम-स्वरूप प्रिय के चरणों में निवेदित यह ऐकांतिक प्रेम, इसका सार है, जो प्रायः स्वार्थमय है । यह ईसाई धर्म के प्रथम और सर्वश्रेष्ठ आदेश की शिक्षा देता है; परंतु दूसरे आदेश को पूर्णतः भुला देता है। यह दूसरा आदेश इसप्रकार है-'अपने पड़ोसी को उतना ही प्यार करो जितना स्वयं अपने को करते हो।'

इन दोनों संप्रदायों को कुछ देर के लिए अलग छोड़कर, हमें एक असा- धारण व्यक्ति के सामने रुकना चाहिए जो कुछ बातों में राजपूत चारणों का वंशज था और दूसरी तरफ जिसकी रचना में कबीर के उपदेशों का प्रभाव भी पूर्ण रूप से स्पष्ट है। मलिक मुहम्मद ( उपस्थित १५४० ई०) ने मुसलमान और हिंदू दोनों आचार्यों से पढ़ा था और उन्होंने अपने युग की शुद्धतम भाषा में पद्मावत नामक दार्शनिक महाकाव्य लिखा । सुन्दरी पद्मावती के लिए रतनसेन की खोज की, अभी तक अनाक्रांत चित्तौर के अलाउद्दीन द्वारा घेरे जाने की, रतनसेन की वीरता की और पद्मावती के पातिव्रत की यह कहानी जिसकी समाप्ति भयानक जौहर की उस ज्वाला में हुई, जिसमें उस अभागे नंगर की सारी पवित्रता और सुन्दरता, विजेता की कुवासना से अपनी रक्षा करने के लिए, भस्म हो गई, स्पष्ट भाषा में कहता हुआ भी, यह ग्रंथ एक रूपक काव्य है, जिसमें बुद्धिमत्ता के लिए आत्मा की खोज और वे सभी । कटिनाइयों एवं दुर्लोभ जो उस पर यह यात्रा करते समय आक्रमण करते हैं, वर्णित हैं । मलिक मुहम्मद का आदर्श अत्युच्च है और इस मुसलमान फकीर के संपूर्ण काव्य में, अपने देशवासी हिंदुओं के कुछ महात्माओं की सी विशालतम उदारता और सहानुभूति की शिराएँ सर्वत्र प्रवाहित हैं, जब कि हिंदू लोग अभी अँधेरे ही में उस प्रकाश के लिए टटोल रहे थे, जिसकी झलक उनमें से कुछ को मिल भी गई थी।

केवल भाषा के अध्येता के लिए, सौभाग्य से पद्मावत इतना अमूल्य है कि इसका महत्त्व आँका नहीं जा सकता । सोलहवीं शती के प्रारंभिक भाग में लिखित यह ग्रंथ हमारे सामने उस युग की भाषा और उसके उच्चारण का प्रतिनिधित्व करता है। परंपरा की शृंखलाओं में जकड़े हिंदू लेखक शब्दों को उस प्रणाली पर लिखने के लिए वाध्य थे, जिस पर वे शब्द प्राचीन संस्कृत में उनके पुरुखों द्वारा लिखे जाते थे, न कि उस रूप में जिसमें वे उस समय बोले