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एक अपेक्षाकृत अनुर्वर युग प्रारम्भ होता है। यह मुगल साम्राज्य के पतन और ह्रास का तथा मराठा शक्ति के आधिपत्य और पतन का युग था। मुगल आधिपत्य की समाप्ति के साथ साथ किसी अन्य आधिपत्य के अभाव में राजपूताना झगड़ों में पड़कर विभक्त हो गया था और एक राजा दूसरे राजा से, उस अपने पड़ोसी को ही लूटने के लिए, लड़ रहा था। चारण बहुत कम थे और चूंकि इन्हें केवल रक्तपात और विश्वासघात के ही गीत गाना पड़ता अतः इन्होंने चुप रहना ही उचित समझा। साहित्य के अन्य विभागों में भी इसी प्रकार का ह्रास हुआ। प्रथम कोटि का कोई भी मौलिक लेखक नहीं उत्पन्न हुआ। बड़े नाम हमें वे ही मिलते हैं जो या तो पिछली द्वि-शताव्दी। में लिखित ग्रंथों के टीकाकारों के हैं या केशवदास द्वारा प्रतिष्ठापित रीति शास्त्र को और भी विकसित करने वाले लोगों के हैं। पिछली श्रेणी के लोगों में सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं उदयनाथ त्रिवेदी और जसवंत सिंह, जो क्रमशः रस चंद्रोदय और भाषा भूषण ग्रंथों के रचयिता हैं। इसी प्रकार इस युग में अनेक काव्य संग्रह प्रस्तुत किए गए, जैसे बलदेव कृत सत्कविगिराविलास, भिखारी दास कृत काव्य निर्णय और अन्य। इस अनुर्वर शताब्दी का अंत, हिंदुस्तान की कुछ कवयित्रियों में से एक, बीबी रतन कुँवरि कृत प्रेमरत्न से समृद्ध हो जाता है।

उन्नीसवीं शती का पूर्वार्द्ध मगठा शक्ति के पतन से प्रारंभ होता है और गदर से समाप्त होता है। यह विशेषताओं से युक्त एक अन्य युग है। पिछली शती के साहित्यिक अभावों के पश्चात् यह पुनर्जागरण काल है। मुद्रण यंत्रों का प्रवेश उत्तर भारत में पहली बार हुआ; और तुलसीदास से प्रेरणा प्राप्त कर, एक स्वस्थ ढंग का साहित्य शीघ्रता से संपूर्ण देश में ओर छोर फैल गया। यह हिंदी२ भाषा का जन्मकाल है, जिसे अंगरेजों ने अविष्कृत किया था और १८०३ ई० में सर्वप्रथम गिलक्रिस्त के शिक्षण में प्रेमसागर के रचयिता लल्लू जी लाल ने जिसे साहित्यिक गद्य रचना के माध्यम के लिए प्रयुक्त किया। यह प्राचीन से नवीन की ओर अग्रसर होनेवाला एक संक्रमण काल भी था। मुद्रण यंत्रों का प्रवेश अभी तक मध्य भारतवर्ष में नहीं हुआ था और यहाँ प्राचीन परिस्थिति ज्यों की त्यों बनी रही। इन कवियों ने, जिनमें पद्माकर भट्ट सर्वाधिक


१. भिखारीदास कृत काव्य निर्णय संग्रह ग्रंथ नहीं है —अनुवादक।
२. ग्रियर्सन का अभिप्राय खड़ी बोली से है। ग्रियर्सन की यह धारणा भ्रांत है, कि अँगरेजों ने खड़ी बोली का आविष्कार किया। इनके इस भ्रात मत का खंडन आचार्य शुक्ल ने अपने सुप्रसिद्ध इतिहास में पूर्ण रूप से किया है।—अनुवादक