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हिन्दी साहित्यकी भूमिका
 

दर्जेकी रही होगी। कालिदासके ग्रन्थोंसे पंडितोंने ऐसे प्रमाण ढूँढ निकालनेके प्रयत्न किये हैं कि उक्त कविको कामसूत्रका ज्ञान था । वात्स्यायनका बताया हुआ नागरक या रसिक अत्यन्त समृद्ध विलासी हुआ करता था। उसके पास प्रचुर • सम्पत्ति, पर्याप्त अवकाश और अकल्पनीय निश्चिन्तता होती थी। ऐसे विलासियों- की संभावना उसी समय हो सकती है जब देश धन-धान्यसे समृद्ध और सुरक्षित हो । अनुमानतः कामसूत्रका काल सन् ईसवीकी दूसरी शताब्दीके आसपास होना चाहिए । वात्स्यायनने अपने पूर्ववर्ती अनेक विस्तृत कामशास्त्रोंका सार संकलन करके यह ग्रंथ लिखा था। इसमें युवा-युवतियोंकी बहुविध शंगार-चेष्टाओंका केवल वर्णन ही नहीं दिया गया है, मर्यादा भी बाँध दी गई है। किस स्त्रीके -साथ किस पुरुषका कैसा व्यवहार साधजनोचित है और कैसा ग्राम्य और अभद्र- जनोचित इसकी भी मर्यादा इस अंथमें बताई गई है। नायक-नायिकाओंकी शृंगारचेष्टाओंमें, दैनिक जीवनमें, आहार-शयन-भोजनमें, एक विशेष प्रकारके शिष्टाचारकी धारणा कवियोंने इसी ग्रंथके आधारपर बनाई थी। देशकी अवस्था बदलती गई। नागरिक-नागरिकाओंकी स्थिति भी निश्चय ही परिवर्तित होती गई होगी परन्तु कामशास्त्रीय मर्यादा ज्योंकी त्यों ही बनी रही। संस्कृतके अन्यान्य काव्य-ग्रंथोंकी तरह कामसूत्रका सामाजिक वर्णन काल्पनिक नहीं जान पड़ता। वास्तवमें ही उन दिनों उस प्रकारकी अवस्था रही होगी । अवस्था-परिर्वतनके -साथ ही साथ यह अनुभव किया जाने लगा कि काम-सूत्र अपने विशुद्ध रूपमें नागरोंके कामका नहीं हो सकता, इसलिए उसके अनावश्यक अंग छाँटकर केवल कामकी चीजोंका आश्रय करके बहुतसे ग्रंथ लिखे गये। कालान्तरमें यही बादके लिखे गये ग्रंथ मध्य-कालकी सामाजिक अवस्थाके अनुकूल बनाकर हिन्दीमें भी ग्रथित हुए। ये उत्तरकालीन ग्रंथ ही रीतिकालीन कविके आदर्श थे।नायिका-भेदमें नायक-नायिकाओंके व्यवहार, कथोपकथन, शृंगारचेष्टा और दैनिक कार्य-समूह इन्हीं ग्रंथोंसे चालित हो रहे थे। यहाँतक आकर नागरकका वह पुराना आदर्श ( उसका अतिरिक्त विलासमय जीवन) घिस-घिसांकर साधा- रण गृहस्थके रूपमें परिणत हो गया था। इस प्रकार एक तरफ नायिका-भेदका विषय जहाँ नाट्य-शास्त्रीय ग्रंथोंसे लिया गया वहाँ उसका व्यावहारिक अंग • कामशास्त्रीय ग्रंथोंसे अनुप्राणित था। फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि -रीति-कालका कवि केवल नाट्यशास्त्र और कामशास्त्रकी रटन्त विद्याका