पृष्ठ:हिंदी साहित्य की भूमिका.pdf/१४५

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रीति-काव्य १२५. जानकार था। यह स्पष्ट करके समझ लेना चाहिए कि रीति-कालमें लक्षण ग्रंथोकी भरमार होनेपर भी वह उस प्राचीन लोक-भाषाके साहित्यका ही विकास था जो कभी संस्कृत साहित्यको अत्यधिक प्रभावित कर सका था। इत विशेष कालमें जब कि शास्त्र-चिन्ता लोक-चिन्ताका रूप धारण करने लगी थी वह पुरानी लौकिकता-परक लोक-काव्य-धारा शास्त्रीय मतके साथ मिलकर देखते देखते विशाल रूप ग्रहण कर गई। कवियों ने दुनियाको अपनी आँखोंसे देखनेका कार्य बंद नहीं कर दिया । नायिका-भेदकी संकीर्ण सीमामें जितना लोक- " चित्र आ सकता था इस कालका उतना चित्र निश्चय ही विश्वसनीय और मनोरम है । इतना दोष जरूर है कि यह चित्र असंपूर्ण और विच्छिन्न है। शास्त्रमतकी प्रधानताने इस कालके कवियों को अपनी स्वतंत्र उद्भावना शक्तिके. प्रति अतिरिक्त सावधान बना दिया, उन्होंने शास्त्रीय मतको श्रेष्ठ और अपने मतको गौण मान लिया, इसलिए स्वाधीन चिन्ताके प्रति एक अवज्ञाका भाव आ गया। यह भाव उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया और वही इस युगमें सबसे अधिक खतरनाक बाल थी।