साधारण नियम का अभाव है। उसकी वास्तविकताके सम्बन्धमें जैकोबी जैसे
अपभ्रंश और प्राकृतके प्रामाणिक विद्वान्को भी सन्देह ही था ! उत्तरमें कहा
गया है कि नाटकके लेखकोंने मूल भाषाको ठीक ठीक न समझकर उसे साहि-
त्यिक प्राकृत के समान करना चाहा होगा और कालान्तरमें वह भाषा सदोष हो
गई होगी। यह बहुत अच्छी युक्ति नहीं है, पर अगर यह स्वीकार भी कर ली
जाय तो सवाल होता है कि सन् ईसवीकी छठी शताब्दीसे लेकर चौदहवीं
शताब्दी तक अपभ्रंश नामकी कोई एक ही भाषा कैसे बनी रही होगी ? असलमें
कालिदासकी और धनपालकी अपभ्रंश भाषा एक ही नहीं है। अपभ्रंशका सबसे
पुराना उल्लेख भी केवल कालिदासके विक्रमोर्वशीयमें ही नहीं मिलता, उससे
भी बहुत पुराने कालमें मिलता है । भारतीय नाट्य-शास्त्र में यद्यपि अपभ्रंश
नामक भाषाका उल्लेख नहीं है पर लोक-भाषाके नामपर ऐसे उदाहरण मिल
जाया करते हैं जिनमें अपभ्रंशके लक्षण पाये जाते हैं और जो निश्चित रूपसे
साहित्यिक प्राकृतसे एक पैर आगेकी भाषाके नमूने हैं। भरतने मागधी, आवन्ती
प्राची, शौरसेनी, अर्द्धमागधी, बाल्हीका और दाक्षिणात्या इन सात प्राकृत
भाषाओंकी चर्चा करने के बाद (१७-४८) शबर, आभीर, चाण्डालादिकोंकी
भाषाको अलग नाम दिया है। जिन दिनों भरतका नाट्य शास्त्र बन रहा था
उन्हीं दिनों भारतवर्षके पश्चिम और पश्मिोत्तर प्रदेशोंमें आमीरोंका आविर्भाव
हो चुका था। भरत मुनिने लक्ष्य किया था कि इन लोगोंका आधिक्य जिन
प्रदेशोंमें था-अर्थात् सिन्धु, सौवीर और हिमालयके अंश-विशेषमें, वहाँ उकार-
बहुला भाषा जनसाधारणमें प्रचालित हो चली थी । + भाषाशास्त्रियों मेंसे कई
लोगोंका अनुमान है कि यह उकारबहुला भाषा अपभ्रंशसे मिलती जुलती होगी।
आगे चलके शास्त्रकारोंका यह स्पष्ट निर्देश भी पाया जाता है कि काव्यमें आभीर आदिकी भाषाको अपभ्रंश कहते हैं [ दण्डी : काव्यादर्श, (१.३.६)] यह स्मरण रखनेकी बात है कि यह केवल बोलीका विवरण नहीं है पर काव्य- भाषाका ब्यौरा है । दण्डीने यह भी कहा है कि संस्कृत काव्यों में सर्ग होते हैं, प्राकृतमै सन्धि और अपभ्रंश आसार आदि । इससे इतना पर्याप्त स्पष्ट है कि दण्डीके युगमें अपभ्रंश भाषा में काव्य होने लगे थे। इन काव्यों के रचयिता
+ हिमवत्-सिन्धु-सौवीरान्ये च देशाः समाश्रिताः ।
उकारबहुला तजशस्तेषु भाषा प्रयोजयेत् ( १७-६१)