बड़े बड़े विद्वान् और दार्शनिक गण ही नहीं थे बल्कि साधारण जनता भी थे
जिसे दण्डीने आभीर प्रकृति कहा है । जान पड़ता है, आभीरोंकी भाषा ही उस
युगके पंडितोंकी दृष्टिमें अपभ्रंशका उत्तम नमूना थी। परवर्ती कालके सभी
पंडित नाटकके आभीर पात्रों के मुखसे अपभ्रंश बोलवानेका निर्देश करते
यह समझना ठीक नहीं है कि अपभ्रंश केवल आभीरों या अहीरोंकी ही भाषा थी।
भरत मुनिने शुरू शुरूमें इस नवागत जातिके लोगोंके मुँहसे जिस प्रकार की भाषा-
को उच्चरित होते सुना उसे अपभ्रंश जैसा कोई नाम न देकर एक जातिविशे-
षकी भाषा बताया था पर शीघ्र ही ये अहीर भारतके पश्चिमी और मध्य
भागमें प्रधान हो उठे। महाभारतमें इन युद्धप्रिय और घुमक्कड़ आभीरोंकी चर्चा
है। वहाँ वे गोपाल और धुमक्कड़के रूपमें ही परिचित हैं। अनुमानत १५० ई.
पूर्वमें इन आभीरोंने पंजाबके कई अंशोंपर अधिकार कर लिया । सन् १८१ ई०
के क्षत्रप रुद्रसिंहके एक लेखसे पता चलता है कि उनके प्रधान सेनापति रुद्रभूति
आभार थे। फिर सन् ३०० ई० के नाप्तिकके गुफालेखसे पता चलता है कि उन
दिनों वहाँ आभीर नरपति ईश्वरसेन ( जो शिवदत्तके पुत्र थे) का राज्य था ।
३६० ई. के समुद्रगुप्तके प्रयागवाले स्तंभ-लेखसे पता चलता है कि आभीर एक
शक्तिशाली जाति थी और उसका अधिकार समुचे राजस्थानपर हो गया था ।
इस प्रकार आभीरोंके हाथमें शक्ति आती गई और साथ ही साथ उनकी विशे-
षतावाली भाषा काव्यका वाहन बनती गई । जहाँ जहाँ उनका अधिकार रहा
वहाँ वहाँ यह भाषा जोरोंसे चल निकली। समय समयपर उसमें परिवर्तन भी
होते रहे । ज्यों ज्यों आभीरमण शक्तिसंचय करके आगे बढ़ते गये त्यो त्यो अप-
भ्रंश भाषा भी शक्तिसंचय करती गई । झाँसी जिलेके दक्खिनी हिस्से में जो
'अहिरवार' स्थान है, कहते हैं कि वहाँ भी आभीरोंने कभी शासन किया था।
मिरापुर जिलेका ' अहिरौरा' कभी आभीरोंका दृढ़ केन्द्र था । अब भी वहाँके
आसपास अहीरोंकी बड़ी बस्ती है । इस प्रकार जो भाषा भरतके युगमें केवल
एक जातिकी भाषा थी वह धीरे धीरे सारे देशकी भाषा हो उठी। यहाँ इस
कथनका अर्थ यह नही समझा जाना चाहिए कि अपभ्रंश भाषा अहीरोंकी अपनी
भाषा थी। इस कथनका यही अर्थ है कि देशभाषाकी वह विशषता जो आभीरॉके
संसर्गसे प्राप्त हुई थी वही प्रधान हो गई और भाषाका साधारण रूप तत्काल
प्रचलित प्राकृत ही रही। अपभ्रंशमें उस प्राकृतका एक खास प्रकारका स्वर-
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हिन्दी साहित्यकी भूमिका