पृष्ठ:हिंदुई साहित्य का इतिहास.pdf/३०६

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पाप [ १५१ महाजन को झूठा बताया । उत्तर समझ में न आाने के कारण, उसे सब के सामने क्रोध आ गया , किन्तु पीषाने कझ : अच्छा ठीक है, मैंने यह रुपया लिया;कि ईश्वर को दया से हरि-भक्तों के वह काम आाया। तुम उसकी शान क्यों कम करना चाहते हो १ यदि तुम मुझे परेशान नहीं करोगे, तो जब मेरे पास रुपया होगा, मैं तुम्हें दे दंगा ।' तब उन्होंने एक नई रसीद लिख दी, और महाजन के हृदय को शान्ति मिली । वह दीक्षित हो कर, पीपा का शिष्य हो गया, भेंटों के ढेर लगा दिए। पीपा ने मन में सोचा कि क्या वास्तव में मैंने बरबार छोड़ दिया है। उन्होंने अपने मन में कहा : 'जब तक मैं लोगों के सामने रहूंगा, मैं भक्ति कार्य न कर सकेंगा। दिनरात भीड़ मुझे घेरे रहती है : मेरा मन उससे थक-सा गया है।’ उन्होंने सीता से कहाः रामभजन के लिए चिथड़े लो, और हमें किसी दूसरी जगह वतना चाहिए । परिस्थिति के अनुसार, हम शिक्षा लेंगे । जंगल में रहना हमारे लिए महल में रहने के बराबर होगा । कुछ समय तक हम वहाँ रहें ।' सोता ने उत्तर दियाः ‘जव अपने यह आाज्ञा दी है तो नाकी आज्ञा का पालन होगा : मैं सदैव आपकी इच्छात्रों का अनुसरण करती रहेंगी ।' , अपनी ब्रात्मा की प्रेरणा के अनुसार, वे इधरउधर घूमने लगे । . तब वे जंगल के एक गाँव में रहने गएजिसके आधे भाग में गाड़ीवान रहते थे । स्त्री-पुरुष उनका मजाक बनाने लगे । उन्होंने उनका ( पीपा और सीता का ) वहाँ रहना बुरा समझा, और वे उनके साथ बैठ-उठते नहीं थे 1 तब पीपा और सीता एक ख़ाली मकान में चले गएऔर दोनों मिल कर रामनाम लेने लगे। इसी बीच सौ संन्यासी पीपा के यहाँ आए। उन्होंने दयाव्यवहार को याचना शब्दशः, 'ठों करना’