राम चरण अपनी ७९ वीं वर्ष की अवस्था में, १७९८ के अप्रैल मास मेंं, मृत्यु को प्राप्त हुए, और शाहपुर के प्रधान मन्दिर में उनका शरीर भस्मीभूत कर दिया गया।
कहा जाता है कि भीलवाड़ा के सूबेदार, देवपुर की जाति के बनिए ने, जो राम चरण के सबसे बड़े दुश्मनों में से था, एक दिन एक सिंगी[१] को उन्हेंं मार डालने के लिए भेजा। जिस समय यह व्यक्ति पहुँचा, राम चरण ने, जो संभवतः यह भेद जानते थे, सिर झुका दिया और उससे दी गई आज्ञा का पालन करने के लिए कहा, किन्तु यह जताते हुए कि जिस प्रकार केवल ईश्वर ने जीवन दिया, उसी प्रकार उसकी आज्ञा बिना उसे कोई नष्ट नहीं कर सकता। इन शब्दों से मारने वाले को यह विश्वास हो गया कि राम चरण ने अलौकिक ढंग से उसे सौंपे गए कार्य को पहले से ही जान लिया था; वह सुधारक के पैरों पर गिर पड़ा और क्षमा याचना की।
राम चरण ने छत्तीस हज़ार दो सौ पचास शब्दों या भजनों की रचना की है, जिनमें से प्रत्येक में पाँच से ग्यारह तक पंक्तियाँ हैं। प्रत्येक श्लोक बत्तीस वर्णों से बना है। ये गीत, यद्यपि वे भी जो इस दार्शनिक के उत्तराधिकारियों[२] द्वारा लिखे गए हैं, देवनागरी अक्षरों और प्रधानतः हिन्दी में, राजवाड़ा के ख़ास प्रयोगों, फ़ारसी और अरबी शब्दों, और संस्कृत तथा पंजाबी उद्धरणों के मिश्रण के साथ, लिखे गए हैं। मैंने ऊपर की सब बातें कैप्टेन वेस्मकट (Westmacott) से ली हैं, जिन्होंने उन्हें कलकत्ते