पृष्ठ:हिंदुई साहित्य का इतिहास.pdf/४०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रैदास या रदस [ २५३. रैदास का अनादर करते हुए उन्होंने कहा : ‘एक घंमार शाल- ग्राम की पूजा करता है, औौर तत्पश्च।त् नगर के स्त्रीपुरुषों को पवित्र प्रसाद बता है । इस प्रकार वह उनको जाति श्रेsट औौर नष्ट करता है ।’ राजा ने ये शिकायतें सुन कर, रैदास को बुलाया, और उनसे कहा : ‘शालग्राम ब्राह्माणों के लिए छोड़ दो ।' उन्होंने उत्तर दिया : ‘यह तो बहुत अच्छा है, मैं भी यही चाहता हैं, किन्तु यदि रात को मूर्ति फिर मेरे पास आा जायगी, तो ब्राह्मण इससे समगे कि मैंने उसे चुरा लिया है । इसलिए प्रमाण के बाद ही वह उन्हें दी जाय ।’ फलतः, राजा ने मूर्ति का सिंहासन महल में रखवाया। उन्होंने ब्राह्मणों से मूर्ति भंगबाई । तिस पर वे वेदोचार करतेकरते थक गएकिन्तु मूर्ति टस से मस न हुई । तत्र रैदास ने एक ऐसा मधुर गाना सुनाया, कि मूर्ति अपनी गद्दी सहित रैदास की गोद में जा बैठी। ब्राह्मण लज्जित हो लौट गएऔर राजा ने रैस का अत्यधिक श्रादर किया । चितौड़ की रानीझाली, कबीर के पास उनकी शिष्या होने गई । वहाँ पहुँचने पर उसने कभीर को दरी पर बैठे हुए पाया जो शीर गिरा होने के कारण कई हज़ार मक्खियों से ढकी हुई थी । यह दृश्य देखकर उसे श्रद्धा न हो सकी, किन्तु दास की मूर्ति का सौन्दर्य देखकर बहू उनकी शिष्या हो गई । जय उनके साथ के ब्राह्मणों ने यह सुना तो उनका शरीर क्रोधाग्नि से जल उठ, और फिर से शान्त होने के लिए राजा के पास गए । ब्राह्मणों के आग्रह से राजा ने सन्त को फिर बुला मेजा, और पहले की भाँति फिर वही प्रमाण देने के लिए कहा । ब्राह्मण वेद पदतेपढ़ते थक गए, उधर रैदास के पतिंत पाबन देवता के सम्मान में यह पद पढ़ा । आ7यो घायो ही देवाधिदेव तुम शरण नाथो । सकल सुबकी मूल जाकी नई सम तुलसी चरण मूल पायो । लियो चित्रि जौन