पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/१९६

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( १६५) संबंध में यह प्रसिद्ध है कि वहाँ किसी प्रकार की प्रजातंत्री शासन-प्रणाली प्रचलित थी। अशोक के शिलालेखों में उसकी जो 'केरलपुतो' उपाधि मिलती है, वह शासन के किसी विशिष्ट प्रकार की सूचक हो सकती है। 'केरलपुतो' केरल का शासक तो था, परंतु उसका राजा नहीं था। अशोक के शिलालेखों में जो केरलपुतो का पड़ोसी 'सतियपुतो' पाया है, वह भी इसी प्रकार का शासक रहा होगा। बिलकुल प्रारंभ मे सात्वत् लोग दक्षिण के किनारे या सीमा पर थे; और यह बहुत कुछ संभव है कि उनकी शाखाएँ और भो अधिक नीचे या दक्षिण की ओर चली गई हों। जब कि 'सतियपुतो' भोज था, तब हम 'केरलपुतो' को उग्र मान सकते हैं। परंतु जब तक और प्रमाण न मिलें, तब तक यह निर्धारण बिलकुल ठीक नहीं माना जा सकता और इसमें संशोधन का स्थान बना ही रहेगा। ६ १०३. यहाँ यह बात स्मरण रखनी चाहिए कि इन सब प्रकार की शासन-प्रणालियों में शासक का अभिषेक बहुत ही आवश्यक समझा जाता था। जब तक अभिषेक नहीं होता था, तब तक कानूनी दृष्टि से शासन या राज्य का अस्तित्व हो नही माना जाता था। परंतु ऐसा क्यों होता था ? इसका कारण यही था कि शासकों को बहुत ही उत्तमता तथा धर्मपूर्वक शासन करने की शपथ लेनी पड़ती थी। यह पद्धति इतनी आवश्यक और महत्वपूर्ण थी कि जिन प्रजातंत्री राज्यों में